किस से पूछूँ मेरे मालिक मेरे जिस्म से मुझ को अब ये ख़ून की बू क्यूँ आती है जबकि कोई ज़ख़्म नहीं है घाव नहीं जो दिखता हो फिर ये कैसी बू है जो साँसों में रेंगती रहती है कपड़ों से चिमटी है मेरे दरवाज़ों से दीवारों से मेज़ पे रक्खे अख़बारों से रिसती है कैसे मैं इस ख़ून की बासी बू से छुटकारा पाऊँगा रगड़ रगड़ कर ख़ुद को देखा कितने ही दरियाओं में मैं ग़ोता मार के आया लेकिन ख़ून की बॉस बड़ी ज़िद्दी है जा कर ही नहीं देती है जबकि कोई ज़ख़्म न कोई घाव बदन पर है मेरे ऐसी कौन सी चोट लगी थी लोग तो रोज़ाना मरते हैं रोज़ ही इक गर्दन कटती है मस्जिद में बम बाँध के कोई रोज़ नवाफ़िल पढ़ता है ये सब तो मा'मूल है लेकिन मेरे जिस्म से मुझ को फिर ये ख़ून की बू क्यूँ आती है जबकि कोई ज़ख़्म नहीं है घाव नहीं जो दिखता हो