ख़ित्ता-ए-अर्ज़ पे क्या शान है तेरी उर्दू तू मिरी ज़ीस्त का अरमान है मेरी उर्दू तुझ को बख़्शा गया दुनिया में मुअ'ल्ला का ख़िताब तू वो जौहर है कि तेरा नहीं दुनिया में जवाब गुलशन-ए-दहर में मौजूद है ख़ुशबू की तरह तू है सहरा-ए-ख़यालात में आहू की तरह तेरी अज़्मत कोई 'अशरफ़' की ज़बाँ से पूछे नफ़्स-ए-मज़मूँ तिरा 'ख़ुसरव' के बयाँ से पूछे यूँ तो कहने को वतन है तिरा ये बर्र-ए-सग़ीर मगर ऐ लैला-ए-जाँ तेरा हर इक दिल है असीर तुझ पे नाज़ाँ थी क़ुली 'क़ुत्ब' के जज़्बात की रौ कभी दिल्ली तो कभी लखनऊ पहुँची तिरी ज़ौ तुझ को ए'ज़ाज़-ए-अजब शाहजहाँ ने बख़्शा लुत्फ़-ए-शाइस्तगी 'सौदा' की ज़बाँ ने बख़्शा आ गया दिल में तिरे 'मीर-तक़ी-मीर' का सोज़ दे गया दर्द की लज़्ज़त तुझे 'दिल-गीर' का सोज़ 'मोमिन'-ओ-'ज़ौक़' के अफ़्कार तुझे रास आए ज़ेहन-ए-'ग़ालिब' के ख़यालात तिरे पास आए आ गया तेरे कफ़-ए-दस्त में आलम का ज़मीर कर गए तुझ को सर-अफ़राज़ 'अनीस' और 'दबीर' 'दाग़' ने तुझ को दिए इश्क़ के अंदाज़ नए फ़िक्र-ए-'इक़बाल' से क्या क्या न मिले राज़ नए 'जोश' की शो'ला-बयानी ने तुझे दी वुसअ'त 'आरज़ू' की हमा-दानी ने तुझे दी वक़अत कर गया तुझ को बुलंद 'आल-ए-रज़ा' का उस्लूब दे गया लहजा-ए-नौ 'फ़ैज़' का धीमा उस्लूब शादी-ओ-ग़म में तुझे याद किया करते हैं तेरी आवाज़ में फ़रियाद किया करते हैं