ग़ज़लों के ऐ शहंशाह 'मीर'-ए-जहान-ए-उर्दू बाक़ी नहीं जहाँ में नाम-ओ-निशान-ए-उर्दू ख़ून-ए-जिगर से तू ने जिस रेख़्ता को सींचा आलम में नज़्अ' के है मिलता नहीं मसीहा जिस बाग़ में पली थी उस में सभी ने मसला जिस गुल्सिताँ की जाँ थी उस में भी अब है रुस्वा जिस की ज़बानों पर है कम ऐसे रह गए हैं बहवट में वक़्त ही की सब लोग बह गए हैं अहल-ए-ज़बाँ ने छोड़ा दानिश-वर उठ रहे हैं रुस्वाई है मुक़द्दर जिस सम्त भी गए हैं ग़ज़लों के ऐ शहंशाह 'मीर'-ए-जहान-ए-उर्दू बाक़ी नहीं जहाँ में नाम-ओ-निशान-ए-उर्दू