दीद ही दीद है ऐ उम्र-ए-रवाँ कुछ भी नहीं ये जहाँ कितना हसीं है ये जहाँ कुछ भी नहीं ये तबस्सुम ये तकल्लुम ये तमाशा ये निगह यूँ तो सब कुछ है यहाँ और यहाँ कुछ भी नहीं तेरे अबरू से सिवा वो निगह-ए-तिश्ना-ए-ख़ूँ तीर जब निकला कमाँ से तो कमाँ कुछ भी नहीं उम्र के फ़ासले तय कर न सका जज़्बा-ए-शौक़ ख़ून-ए-दिल कुछ भी नहीं क़ल्ब-ए-तपाँ कुछ भी नहीं ढूँढिए चल के कहीं उम्र-ए-गुज़िश्ता का सुराग़ कश्ती-ए-दिल के लिए सैल-ए-ज़माँ कुछ भी नहीं इन नज़ारों में नज़र अपनी भी जानिब 'मसऊद' वादी-ए-गुल में ब-जुज़ दिल का ज़ियाँ कुछ भी नहीं