माह-ए-रहमत की ख़बर किस के लिए लाया है तू कौन तेरा मुंतज़िर था किस लिए आया है तू देखने होंगे ये दिन तू ने कभी सोचा न था देख वो मंज़र जो इस से पेशतर देखा न था अब किसी को आतिश-ए-दोज़ख़ का कोई डर नहीं बारिश-ए-रहमत में भी दामन किसी का तर नहीं जब ख़ुदा का डर नहीं तो फ़िक्र-ए-उक़्बा क्यूँ रहे फ़ारिग़-उल-बाली में कोई भूका प्यासा क्यूँ रहे देख ले इस दौर में हैं ऐसे रोज़े-दार भी खाते हैं होटल में दिन भर करते हैं इफ़्तार भी