वही दरिंदा मुझे जंगल से शहर ले आया यहाँ उस ने मुस्कुराना सीखा जो करता रहा मैं देखता रहा और अपने अंदर हैरतें जम्अ करता रहा उस ने एक औरत की छातियाँ भंभोड़ डालीं जिस ने उस के उज़्व-ए-तनासुल और दिल को थका दिया है उस ने आसमान की तरफ़ देखा और थूक निगल लिया वहाँ उसे कोई नज़र नहीं आया मुझे पता न चलता वो लफ़्ज़ों में छुप जाता वहीं से नहूसत से मुस्कुराता दिखाई पड़ता कभी कभी मैं ने उस से जान छुड़ानी चाही जब मैं फूल ले रहा था उस लड़की के लिए जिस का दिल एक फूल से भी ज़ियादा नर्म और हल्का था मैं ने उस से जान छुड़ानी चाही जब धूप दीवारों से उतरने का नाम नहीं लेती थी और लम्हे ऊँघते थे मैं इन धूप भरी दीवारों में उसे दफ़्न करना चाहता था मैं ने उस से जान छुड़ानी चाही जब मैं ने पहली बार सच बोलना सीखा ये उसे पसंद नहीं आया उस ने क्रोध में आईना ईजाद किया और मेरे सामने रख दिया मैं ने देखा वही दरिंदा मैं ख़ुद हूँ