वक़्त हैरान निगाहों से मुझे देखता है देख कर हाल को शायद उसे माज़ी का ख़याल आता है वक़्त जब भी किसी ज़रताब ओ हसीं माज़ी के गहनाए हुए हाल से दो-चार हुआ काँप उठा उस को मालूम नहीं है माज़ी किस तरह हाल के साँचे में बिगड़ जाता है तू मगर जानती है तल्ख़ी-ए-ज़ीस्त दमकते हुए शादाब ओ जवाँ चेहरों को कैसे अफ़्सुर्दा-ओ-पज़मुर्दा बना देती है किसी तरह शाम-ए-ख़िज़ाँ सुब्ह-ए-बहाराँ बिखर जाती है तू मुझे देख कर हैरान न हो मैं वही हूँ तू जिसे हासिल-ए-उम्मीद कहा करती थी मैं वही हूँ तू जिसे पहले-पहल देख के चौंक उट्ठी थी और अब देख के ये हाल मिरे माज़ी का हैरान है तू देख हैरान न हो वक़्त हैरानी पे मजबूर है मालूम नहीं है इस को माज़ी क्यूँ हाल के साँचे में बिगड़ जाता है और तू वक़्त नहीं