मौत की पुर-सुकूत बस्ती को दे के इक ज़िंदगी का नज़राना लोग अपने घरों को लौटे हैं सब के चेहरे हैं फ़र्त-ए-ग़म से निढाल सब की आँखें छलक गई हैं आज फिर भी सरहद में शहर की आ कर हँसते बच्चों को खेलता पा कर देख कर ज़िंदगी के हंगामे ऐसा महसूस कर रहे हैं सब जैसे अफ़्सुर्दगी के सहरा से कोई आवाज़ दे के कहता हो मौत के इंतिज़ार में जीना मौत से भी बड़ी अज़िय्यत है ज़िंदगी लाख आरज़ी हो मगर ज़िंदगी जागती हक़ीक़त है