ढलते सूरज का ज़रफ़िशाँ ताबूत ले चले मग़रिबी उफ़ुक़ के कहार और दरमाँदा रहगुज़ारों पर जम गया वक़्त सूरत-ए-अश्जार बे-कराँ बे-अमाँ ख़लाओं तक चीख़ती जाती हैं अबाबीलें पर्बतों के मुहीब चेहरों से डर के ख़ामोश हो गईं झीलें हर खंडर में हैं भूत महव-ए-रक़्स कासा-ए-सर की ले के क़िंदीलें और दूर इस फ़सील-शाम से दूर चाँद का इंतिज़ार है तुम को ख़ुद-कुशी जिस्म-ओ-जाँ की कर के भी ज़ीस्त का ए'तिबार है तुम को बे-नफ़स बे-रिदा-ए-तार-ए-हयात हम बरहना हयूले क्या घूमें मुँह खुली क़ब्रें रो रही होंगी आओ क़ब्रों में अपनी लौट चलें