बेटियाँ भी तो माओं जैसी होती हैं ज़ब्त के ज़र्द आँचल में अपने सारे दर्द छुपा लेती हैं रोते रोते हंस पड़ती हैं हँसते हँसते दिल ही दिल में रो लेती हैं ख़ुशी की ख़्वाहिश करते करते ख़्वाब और ख़ाक में अट जाती हैं सौ हिस्सों में बट जाती हैं घर के दरवाज़े पर बैठी उम्मीदों के रेशम बुनते सारी उम्र गँवा देती हैं मैं जो गए दिनों में माँ की ख़ुश-फ़हमी पे हंस देती थी अब ख़ुद भी तो उम्र की गिरती दीवारों से टेक लगाए फ़स्ल ख़ुशी की बोती हूँ और ख़ुश-फ़हमी काट रही हूँ जाने कैसी रस्म है ये भी माँ क्यों बेटी को विर्से में अपना मुक़द्दर दे देती है