मैं कैसे बताऊँ वो अर्सा जो दूरी में गुज़रा हुज़ूरी में गुज़रा मैं उस की वज़ाहत नहीं कर सकूँगा सर-ए-शाम ही कोई ला-शक्ल कूत मुझे अपने नर्ग़े में रखती मज़ा लेती मेरे नमक का कभी मेरी शीरीनी चखती कभी मुझ को क़तरे कभी मुझ को ज़र्रे में तब्दील करती कभी मुझ को हैअत में लाती कभी मेरी हैअत को तहलील करती अधूरा समझती कभी मुझ को पूरा समझती उसी गोमगो में मुझे तोड़ देती मिरी टुकड़ियों को मिलाती मुझे जोड़ देती मैं कैसे बताऊँ कि जो कैफ़ियत मुझ पे गुज़री असातीरी हरगिज़ नहीं थी किसी देव-माला से सा गा से जा तक कहानी से उस का इलाक़ा नहीं था किसी ख़्वाब का ये वक़ूआ नहीं था न ये वाहिमा था जिसे अक़्ल तश्कील देती है हैरत का वर्ता हिसार-ए-नफ़स या नज़र का करिश्मा कोई वारिदा पास अन्फ़ास तन्वीम या मिस्मिरिज़्म कोई हब्स-ए-दम जज़्ब-ओ-मस्ती किसी संत-साधू की शक्ति किसी सूफ़ी सालिक का इल्हाम सरसाम वहशत की लय वज्द या हाल सी कोई शय एक शीशे के अंदर कोई चीज़ बुर्राक़ पर्दे पे रक़्साँ सी फ़ानूस-ए-गर्दां सी तस्वीरी हरगिज़ नहीं थी असातीरी हरगिज़ नहीं थी मैं कैसे बताऊँ कि जो कैफ़ियत मुझ पे गुज़री मैं उस कैफ़ियत में दोबारा किसी तौर शिरकत नहीं कर सकूँगा वो अर्सा जो दूरी में गुज़रा हुज़ूरी में गुज़रा मैं उस की वज़ाहत नहीं कर सकूँगा