वो औरत थी मगर इक रूप में होना इसे हरगिज़ न भाता था वो हिम्मत में कोई मर्द-ए-तवाना थी जिसे मेहनत मोहब्बत और इंसानी ज़मानी जावेदानी फ़लसफ़ों के तहत जीना था वो ऐसी राहिबा थी जिस के दामन में दुआएँ थीं दवाएँ थीं मुनाजातें तमन्नाएँ वफ़ाएँ कामनाएँ सब उसे तक़्सीम करना था वो माँ थी जिस ने साए में छुपा रक्खे थे दुख उन आत्माओं के जिन्हें महरूमियत मीरास मिलती थी उसे आज़ार अपनाना बहुत अच्छा लगा करता था उसी ने दर्द सीने में बसाने के हुनर से नाम पाया था बहन थी जिस ने भाई कह दिया तो लाज रख कर के दिखाया भी वो हर इक दुख को अपना दुख समझती थी मगर अपनी ख़ुशी औरों में रेज़ा रेज़ा यूँ तक़्सीम करती थी कि जैसे उस को क़िस्मत ने मुक़र्रर कर रखा होगा सुना है उस के जा चुकने से सारे शहर में वो दर्द फैला है जिसे उस ने छुपा रक्खा था सीने में सुना है बस्ती वाले लोग उस को याद करते हैं हर इक बच्चा यतीमी रो रहा है बैन करते हैं वो सब जिन को ज़माने ने ग़रीबी और महरूमी नवाज़ी थी सुना है उस को वो भी रो रहे हैं जिन को आँसू रोलना आता नहीं था सुना है शहर के गोशों में उस की शबनमी आवाज़ सारे दर्द लौटाने को ठहरी है सुना है उस ने अब इस शहर से मुँह मोड़ने की ठान रक्खी है वो औरत थी मगर इक रूप में जीना उसे आता नहीं था