वक़्त अपना भी है पराया भी ये कड़ी धूप भी है साया भी गाह रोतों को वो हँसाता है गाह हँसतों को वो रुलाता है छीन कर अपनों को वो जाता है कभी बिछड़ों को वो मिलाता है ग़म के नग़्मे कभी सुनाता है कभी ख़ुशियों के गीत गाता है है वो बरखा बहार की सूरत और कभी है ख़िज़ाँ-ज़दा मूरत रौशनी है कभी कभी ज़ुल्मत है मोहब्बत भी वो कभी फ़ुर्सत हादसे उस के साथ रहते हैं चर्ख़ तक उस के हाथ रहते हैं राज़ ये जानना नहीं आसाँ इस को पहचानना नहीं आसाँ है वो आशा भी और निराशा भी सौ तमाशों का इक तमाशा भी वक़्त पर जो निगाह करता है वक़्त उस से निबाह करता है