धीरे धीरे बहने वाली एक सलोनी शाम अजब थी उलझी सुलझी ख़ामोशी की नर्म तहों में सिलवट सिलवट भेद छुपा था सर्दीली मख़मूर हवा में मीठा मीठा लम्स घुला था धीरे धीरे ख़्वाब की गीली रीत पे उतरे दर्द के मंज़र पिघल रहे थे ख़्वाहिश के गुमनाम जज़ीरे साहिल पर फैली ख़ुशबू के मरग़ोलों को निगल रहे थे धीरे धीरे जाने कौन से मौसम के दो फूल खिले थे शहद भरी सरगोशी सुन कर झुके झुके से होंट हँसे थे बढ़ने लगा था एक अनोखा सन सन करता बे-कल नग़्मा याद नहीं है कहाँ गिरे थे मेरी बाली उस का चश्मा