मो'जिज़ा था अजब आहनी छनछनाहट से ज़ंजीर ख़ुद अपने क़दमों में आ कर गिरी भारी-भरकम दहाने खुले और चर्ख़ चूँ की फ़रियाद के साथ पटरी पर डब्बे सरकने लगे सुब्ह की दूधिया छाँव में आँख मलते हुए सब ये हैरत-ज़दा देखते थे कोई खींचने वाला इंजन न था और तराई उतरती गई उन की रफ़्तार बढ़ती गई ख़ार-ओ-ख़स को कुचलती हुई तेज़ से तेज़-तर तेज़ तर तेज़-तर अब ये पटरी जहाँ उन को ले जाए जाएँगे अब ये मुसाफ़िर जो इस फ़ज़्ल-ए-रब्बी पे नाज़ाँ थे हैराँ हैं मश्कूक नज़रों से इक दूसरे से गुरेज़ाँ से वहमों को दिल में छुपाए हुए तेज़ रफ़्तार बढ़ते चले जाएँगे ये कहाँ जाएँगे