बादल के पर्दों से तहदार कुहरों में डूबा हुआ नूर लिपटा हुआ सुब्ह की अव्वलीं दूधिया छाँव में इक झलक आसमानों की वुसअ'त की रिम-झिम टपकती हुई झील की पुर-सुकूँ सत्ह पर तैरती यूँ लगा जैसे मेरी पहुँच में यहीं आ गई सत्ह-ए-जाँ से उठी ये दुआ उस हसीं लम्हा-ए-सहर-आगीं मैं ख़ुशियों से भर दे मिरे दिल की गहराइयों को तो आवाज़ आई की दामन बढ़ा और जब दिल को वा कर दिया मैं ने तब अपनी कम-माइगी पे बहुत ग़म हुआ