ये किस की साज़िश है किस का ख़ून है ये कौन आमादा-ए-जुनूँ है ये कौन आग और ख़ून की होली जला रहा है ये कौन तीरों से खेलता है ये कौन ख़ंजर-ब-कफ़ उख़ुव्वत का जिस्म-ए-नाज़ुक कुचल रहा है हुमकती मा'सूमियत को नेज़ों से छेदता है लरज़ती इंसानियत के खे़मे जला रहा है कि आसमाँ से मुहीब शो'ले बरस रहे हैं हवाएँ मस्मूम हो गई हैं फ़ज़ाओं से ख़ूँ टपक रहा है ज़मीन की छाती को चीर कर नफ़रतों का लावा उबल पड़ा है हर एक ज़ी-रूह के बदन पर इक अन-कहे ख़ौफ़ की रिदा है मुनाफ़िक़त की बरहनगी कैसे हर्फ़-ए-आग़ाज़ बन गई है अदू-ए-दानिश को किस जफ़ा-कार मस्लहत ने कलीद-ए-दानिश सिपुर्द की है अदू-ए-इंसानियत को किन चीरा-दस्तियों ने हुकूमत-ए-कुर्रा-ए-ज़मीं सौंप दी है जिस ने बिना-ए-तहज़ीब रौंद डाली कि रू-ए-हस्ती से अक्स-ए-तहज़ीब की दरख़्शाँ मताअ' का नूर मिट रहा है शबान-ए-दीजूर की सियाही उमड रही है वो तीरगी है हर एक जूया-ए-हक़ से तनवीर-ए-इल्म-ओ-इरफ़ाँ किनारा-कश है