ये मुझ में कौन है कि जब भी गर्दिश-ए-लहू ने मेरे जिस्म की हरारतें हर इक रग-ए-हयात में उतार दीं तो उस की ख़ुद-कलामियों ने नींद की सियाह चादरें समेट लीं समाअतों की रहगुज़र में उस की गुफ़्तुगू के क़ाफ़िले रुके तो दश्त-ए-ज़िंदगी पे अब्र का ग़िलाफ़ आ गया सुकूत-ए-ज़िंदगी में जैसे इंक़लाब आ गया मैं उस से पूछता रहा कि कब तलक ये मर्ग-ओ-ज़ीस्त की मुसीबतें फ़िराक़-ओ-वस्ल की सऊबतें मिरे वजूद पर रहेंगी ख़ेमा-ज़न मगर मिरे सवाल पर या मेरी अर्ज़-ए-हाल पर नुज़ूल-ए-हर्फ़-ए-आगही न हो सका वो मुझ में अस्ल ज़ात की तरह रहा मगर कभी ये मुन्कशिफ़ न हो सका कि इस ख़ियाम-ए-ज़ात में मिरे सिवा ये कौन है इक अजनबी सा आश्ना ये मुझ में कौन है