इन दरख़्तों के गहरे घने, ख़्वाब-आलूद साए में ख़ामोश, हैरान चलता हुआ... एक रस्ता किसी दूर की... रौशनी की तरफ़ जा रहा है यहाँ से जो देखो तो जैसे... कहीं हद्द-ए-इम्काँ तलक गुम-शुदा वक़्त जैसी अँधेरी गुफा है यहाँ से जो देखो... तो उम्मीद जैसा बहुत हैरत-अफ़ज़ा... अजब सिलसिला है जो इस तंग, तारीक नुक़्ते से मुमकिन के मानिंद, इक रौशनी-ज़ाद क़र्ये की जानिब खुला है फ़ज़ा में कहीं नील-गूँ सब्ज़, हल्के सुनहरे कहीं बस हरे ही हरे... सख़्त गहरे बहुत ऊँघते डोलते रंग सूखे हुए सुर्ख़ पत्तों के मानिंद उस बे-अमाँ रास्ते पर पड़े हैं किरन भूली-भटकी कोई उन से आ कर अचानक जो मिलने लगी है तो यक-बारगी चौंक कर... सब दमकने लगे हैं अँधेरे की इस हद्द-ए-इम्काँ तलक तंग, गहरी गुफा में... सभी याद के जुगनुओं की तरह उड़ते उड़ते चमकने लगे हैं यहाँ से जो देखो... तो नादीदा मंज़िल की मौहूम हैरत से आँखें, हर इक ख़्वाब की नीम वा हैं तमन्नाओं के दिल धड़कने लगे हैं!