मिरी आँखें अटी हैं गर्द से फिर भी मैं सब कुछ देख सकती हूँ ज़मीं पर गाँव ने जब रूप धारा शहर का तब से सहर की आँख खुलते ही उसे फिर नींद आने तक हज़ारों नक़्श-ए-पा बनते बिगड़ते हैं कई मानूस हैं इन में कई हैं अजनबी लेकिन सभी ये चाहते हैं याद रह जाएँ ज़माने को सहर की आँख खुलते ही उसे फिर नींद आने तक न जाने कितने रिक्शे साइकिलें मोटर मुझे यूँ रौंद कर आगे बढ़ते हैं कि जैसे मैं ने अपना जिस्म उन को बेच डाला है मैं राहों का मुक़द्दर हूँ सितम देखो मिरे सीने पे फोड़े फुंसियाँ अब भी गढ़ों की शक्ल में फैली हुई हैं