जन्नत ओ कौसर ओ अफ़रिश्ता ओ हूर ओ जिब्रील By Qita << माह-ओ-अंजुम के सर्द होंटो... हम फ़क़ीरों की सूरतों पे ... >> जन्नत ओ कौसर ओ अफ़रिश्ता ओ हूर ओ जिब्रील मानता हूँ तिरी तख़ईल की रानाई को लेकिन इक उम्र से उजड़ी हुई दुनिया की ज़मीं ढूँडती है तिरे ज़ौक़-ए-चमन-आराई को Share on: