लफ़्ज़ चुनता हूँ तो मफ़्हूम बदल जाता है By Qita << हर घड़ी चश्म-ए-ख़रीदार मे... अभी से लुत्फ़-ओ-मुरव्वत क... >> लफ़्ज़ चुनता हूँ तो मफ़्हूम बदल जाता है इक न इक ख़ौफ़ भी है जुरअत-ए-इज़हार के साथ दो घड़ी आओ मिल आएँ किसी 'ग़ालिब' से 'क़तील' हज़रत-ए-'ज़ौक़' तो वाबस्ता हैं दरबार के साथ Share on: