हर क़तरे में बहर-ए-मा'रफ़त मुज़्मर है Admin शायरी बशीर, Rubaai << हर ज़र्रे पे फ़ज़्ल-ए-किब... गरमी में ग़म-ए-लिबादा ना-... >> हर क़तरे में बहर-ए-मा'रफ़त मुज़्मर है हर इक ज़र्रे में कुछ न कुछ जौहर है हो चश्म-ए-बसीरत तो हर चीज़ अच्छी गर आँख न हो तो ला'ल भी पत्थर है Share on: