लज़्ज़त चाहो तो वस्ल-ए-माशूक़ कहाँ Admin बंदूक शायरी, Rubaai << ले ले के क़लम के लोग भाले... लफ़्ज़ों के चमन भी इस में... >> लज़्ज़त चाहो तो वस्ल-ए-माशूक़ कहाँ शौकत चाहो तो ज़र का संदूक़ कहाँ कहता है ये दिल कि ख़ुद-कुशी की ठहरे ख़ैर इस को भी मान लें तो बंदूक़ कहाँ Share on: