अगर न ज़ोहरा-जबीनों के दरमियाँ गुज़रे By Sher << ये पड़ी हैं सदियों से किस... हमारे दिल को इक आज़ार है ... >> अगर न ज़ोहरा-जबीनों के दरमियाँ गुज़रे तो फिर ये कैसे कटे ज़िंदगी कहाँ गुज़रे Share on: