ग़ज़ालों को तिरी आँखें से कुछ निस्बत नहीं हरगिज़ By Sher << पीरी हुई शबाब से उतरा झटक... 'क़मर' अपने दाग़-... >> ग़ज़ालों को तिरी आँखें से कुछ निस्बत नहीं हरगिज़ कि ये आहू हैं शहरी और वे वहशी हैं जंगल के Share on: