मैं फिर इक ख़त तिरे आँगन गिराना चाहता हूँ By Sher << मैं तर्क-ए-तअल्लुक़ पे भी... क्या शख़्स था उड़ाता रहा ... >> मैं फिर इक ख़त तिरे आँगन गिराना चाहता हूँ मुझे फिर से तिरा रंग-ए-बुरीदा देखना है Share on: