रवाँ थी कोई तलब सी लहू के दरिया में By Sher << छुपे हैं लाख हक़ के मरहले... हज़ार रंग में मुमकिन है द... >> रवाँ थी कोई तलब सी लहू के दरिया में कि मौज मौज भँवर उम्र का सफ़ीना था Share on: