रात की दस्तक दरवाज़े पर हैआज का दिन भी बीत गया हैकितना था उजाला फिर भी फिर सेअन्धियारा ही जीत गया हैएकान्त की चादर ओढ़ कर फिर सेमैं खुद में खोया जाता हूँआँखों के सामने यादों के रथ परमेरा ही अतीत गया हैसन्नाटों के गुन्जन में दबकरअपनी ही आवाज़ नहीं आती मुझकोआँखों की सरहद पर लड़ताआँसू भी अब जीत गया हैटूटे दर्पण के सामने बैठकरमैं स्वयं को खोज रहा हूँयूँ ही बैठे बैठे जानेकितना अरसा बीत गया है ... ॥