बीमार-ए-ग़म

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अभी तो ज़र्दी है रुख़ पे कम-कम, अभी से रोते हैं सारे हमदम
यूँ ही जो चंदे रही तप-ए-ग़म, तो फिर लहू भी नहीं रहेगा

उसे लाकर इसकी ख़्वाब-गाह में लिटा दिया गया। रात गर्म थी और वीरान। उसकी ख़्वाब-गाह की दीवारें हल्के आसमानी रंग की थीं। उस पर सियाह रंग में चीनी किसानों की तस्वीरें पेंट की हुई थीं जो चाय के खेत में मशक़्क़त कर रहे थे। ख़्वाब-गाह के लम्बे-लम्बे सुनहरे और फ़िरोज़ी रंग के पर्दे ख़िज़ाँ की हवा से न जाने क्यों एक अजीब अलम-नाक अंदाज़ में हिल रहे थे, जैसे कोई उन्हें झिंझोड़ रहा हो और ज़िंदगी के ख़्वाब से बेदार कर रहा हो।
एक तरफ़ एक छोटी से मुनक़्क़श संदल की मेज़ पर चाँदी के दो बड़े-बड़े गुलदानों में हिना के फूल रखे थे। जिनकी निकहत कमरे को कुछ और ज़ियादा हसीन बना रही थी। इक कोने में आसमानी रंग के पत्थर में मोहब्बत के देवता की तस्वीर लगी हुई थी। उसके क़दमों में मेरी पालतू बिल्ली शकूरी सो रही थी। दरीचे के नीचे सितार बे कसी की हालत में पड़ा था। उसका ग़िलाफ़ कोच के पास ही क़ालीन पर रखा हुआ था। उससे कुछ दूर ख़िज़ाँ के चंद ख़ुश्क और ज़र्द पत्ते पड़े हुए थे। [...]

वो तरीक़ा तो बता दो तुम्हें चाहें क्यूँकर?

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बहार की एक सुनहरी सुबह में सूफ़ी इत्मीनान से बैठी नफ़्सियाती मुबाहिसे की एक किताब के दलायल-ए-कूफ़ी के घोंटों की इमदाद से दिमाग़ में उतारने की कोशिश कर रही थी। अचानक रेहानी अपने कालेज का ब्लेज़ पहने हाँपते हुए दरीचे में से अंदर कमरे में कूद पड़ा।
तुम...!

मैं!
सूफ़ी, चोरों की शक्ल बनाए इधर-उधर क्या देख रहे हो? [...]

डालन वाला

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हर तीसरे दिन, सह-पहर के वक़्त एक बेहद दुबला पुतला बूढ़ा, घुसे और जगह-जगह से चमकते हुए सियाह कोट पतलून में मलबूस, सियाह गोल टोपी ओढ़े, पतली कमानी वाली छोटे-छोटे शीशों की ऐ’नक लगाए, हाथ में छड़ी लिए बरसाती में दाख़िल होता और छड़ी को आहिस्ता-आहिस्ता बजरी पर खटखटाता। फ़क़ीरा बाहर आकर बाजी को आवाज़ देता, “बिटिया। चलिए। साइमन आ गए।”
बूढ़ा बाहर ही से बाग़ की सड़क का चक्कर काट कर पहलू के बरामदे में पहुँचता। एक कोने में जाकर और जेब में से मैला सा रूमाल निकाल कर झुकता, फिर आहिस्ता से पुकारता, “रेशम... रेशम... रेशम...”

रेशम दौड़ती हुई आती। बाजी बड़े आर्टिस्टिक अंदाज़ में सरोद कंधे से लगाए बरामदे में नुमूदार होतीं। तख़्त पर बैठ कर सरोद का सुर्ख़ बनारसी ग़िलाफ़ उतारतीं और सबक़ शुरू’ जाता।
बारिश के बा’द जब बाग़ भीगा-भीगा सा होता और एक अनोखी सी ताज़गी और ख़ुशबू फ़िज़ा में तैरती तो बूढ़े को वापिस जाते वक़्त घास पर गिरी कोई ख़ूबानी मिल जाती। वो उसे उठा कर जेब में रख लेता। रेशम उसके पीछे-पीछे चलती। अक्सर रेशम शिकार की तलाश में झाड़ियों के अंदर ग़ायब हो जाती या किसी दरख़्त पर चढ़ जाती तो बूढ़ा सर उठा कर एक लम्हे के लिए दरख़्त की हिलती हुई शाख़ को देखता और फिर सर झुका कर फाटक से बाहर चला जाता। तीसरे रोज़ सह-पहर को फिर उसी तरह बजरी पर छड़ी खटखटाने की आवाज़ आती। ये मा’मूल बहुत दिनों से जारी था। [...]

अंगूठी की मुसीबत

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(1)
मैंने शाहिदा से कहा, तो मैं जा के अब कुंजियाँ ले आऊँ।

शाहिदा ने कहा, आख़िर तू क्यों अपनी शादी के लिए इतनी तड़प रही है? अच्छा जा।
मैं हँसती हुई चली गई। कमरे से बाहर निकली। दोपहर का वक़्त था और सन्नाटा छाया हुआ था। अम्माँ जान अपने कमरे में सो रही थीं और एक ख़ादिमा पंखा झल रही थी। मैं चुपके से बराबर वाले कमरे में पहुंची और मसहरी के तकिया के नीचे से कुंजी का गुच्छा लिया। सीधी कमरे पर वापस आई और शाहिदा से कहा, जल्दी चलो। [...]

मेरा नाम राधा है

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ये उस ज़माने का ज़िक्र है जब इस जंग का नाम-ओ-निशान भी नहीं था। ग़ालिबन आठ नौ बरस पहले की बात है जब ज़िंदगी में हंगामे बड़े सलीक़े से आते थे। आज कल की तरह नहीं कि बेहंगम तरीक़े पर पै-दर-पै हादिसे बरपा हो रहे हैं, किसी ठोस वजह के बग़ैर।
उस वक़्त मैं चालीस रुपया माहवार पर एक फ़िल्म कंपनी में मुलाज़िम था और मेरी ज़िंदगी बड़े हमवार तरीक़े पर उफ़्तां-ओ-ख़ेज़ां गुज़र रही थी। या’नी सुबह दस बजे स्टूडियो गए। नियाज़ मोहम्मद विलेन की बिल्लियों को दो पैसे का दूध पिलाया। चालू फ़िल्म के लिए चालू क़िस्म के मकालमे लिखे। बंगाली ऐक्ट्रस से जो उस ज़माने में बुलबुल-ए-बंगाल कहलाती थी, थोड़ी देर मज़ाक़ किया और दादा गोरे की जो इस अह्द का सबसे बड़ा फ़िल्म डायरेक्टर था, थोड़ी सी ख़ुशामद की और घर चले आए।

जैसा कि मैं अ’र्ज़ कर चुका हूँ, ज़िंदगी बड़े हमवार तरीक़े पर उफ़्तां-ओ-ख़ेज़ां गुज़र रही थी स्टूडियो का मालिक “हुरमुज़ जी फ्रॉम जी” जो मोटे मोटे लाल गालों वाला मौजी क़िस्म का ईरानी था, एक अधेड़ उम्र की ख़ोजा ऐक्ट्रस की मोहब्बत में गिरफ़्तार था।
हर नौ-वारिद लड़की के पिस्तान टटोल कर देखना उसका शग़ल था। कलकत्ता के बू बाज़ार की एक मुसलमान रंडी थी जो अपने डायरेक्टर, साउंड रिकार्डिस्ट और स्टोरी राईटर तीनों से ब-यक-वक़्त इश्क़ लड़ा रही थी। उस इश्क़ का दर अस्ल मतलब ये था कि न तीनों का इलतिफ़ात उसके लिए ख़ासतौर पर महफ़ूज़ रहे। [...]

क़ैदख़ाना

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अबे ओ राम लाल, ठहर तो सही। हम भी आ रहे हैं।


दो आदमी हाथों में डंडे लिए नशे में चूर झूमते आ रहे थे, राम लाल जो आगे-आगे चल रहा था, डंडा सँभालता हुआ उनकी तरफ़ मुड़ा, जो अब मस्ती से गले लग रहे थे। हवा बंद थी और गर्मी से दम घुटा जाता था। वो सब ताड़ी ख़ाना से लौट रहे थे।
[...]

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