नन्ही की नानी

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नन्ही की नानी का माँ बाप का नाम तो अल्लाह जाने किया था। लोगों ने कभी उन्हें उस नाम से याद ना किया। जब छोटी सी गलियों में नाक सुड़-सुड़ाती फिरती थीं तो बफ़ातन की लौंडिया के नाम से पुकारी गईं। फिर कुछ दिन “बशीरे की बहू” कहलाईं फिर “बिसमिल्लाह की माँ” के लक़ब से याद की जाने लगीं। और जब बिसमिल्लाह चापे के अंदर ही नन्ही को छोड़कर चल बसी तो वो “नन्ही की नानी” के नाम से आख़िरी दम तक पहचानी गईं।
दुनिया का कोई ऐसा पेशा ना था जो ज़िंदगी में “नन्ही की नानी” ने इख़्तियार ना किया। कटोरा गिलास पकड़ने की उम्र से वो तेरे मेरे घर में दो वक़्त की रोटी और पुराने कपड़ों के इव्ज़ ऊपर के काम पर धर ली गईं। ये ऊपर का काम कितना नीचा होता है। ये कुछ खेलने कूदने की उम्र से काम पर जोत दिए जाने वाले ही जानते हैं। नन्हे मियाँ के आगे झुन-झुना बजाने की ग़ैर दिलचस्प ड्यूटी से लेकर बड़े सरकार के सर की मालिश तक ऊपर के काम की फ़ेहरिस्त में आ जाती है।

ज़िंदगी की दौड़ भाग में कुछ भनोमना भुलसना भी आ गया और ज़िंदगी के कुछ साल मामा गैरी में बीत गए। पर जब दाल में छिपकली बघार दी और रोटियों में मक्खियाँ पिरोने लगीं तो मजबूरन रिटायर होना पड़ा। उसके बाद तो नन्ही की नानी बस लगाई बुझाई करने उधर की बात उधर पहुंचाने के सिवा और किसी करम की ना रहीं। ये लगाई बुझाई का पेशा भी ख़ास्सा मुनाफ़ा बख़्श होता है। मुहल्ले में खटपट चलती रहती है। मुख़ालिफ़ कैंप में जाकर अगर होशयारी से मुख़्बिरी की जाये तो ख़ूब-ख़ूब ख़ातिर-मुदारात होती है। लेकिन ये पेशा कै दिन चलता, नानी लतरी कहलाने लगीं और दाल गलती ना पाकर नानी ने आख़िरी और मुफ़ीद तरीन पेशा यानी मुहज़्ज़ब तरीक़े पर भीक माँगना शुरू कर दी।
खाने के वक़्त नानी नाक फैलाकर सूंघतीं कि किस घर में क्या पक रहा है। बेहतरीन ख़ुशबू की डोर पकड़ कर वो घर में आन बैठतीं। [...]

कुंवारी

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उसकी सांस फूली हुई थी। लिफ़्ट ख़राब होने की वजह से वो इतनी बहुत सी सीढ़ियाँ एक ही साँस में चढ़ आई थी। आते ही वो बेसुध पलंग पर गिर पड़ी और हाथ के इशारे से मुझे ख़ामोश रहने को कहा।
मैं ख़ुद ख़ामोश रहने के मूड में थी। मगर उस की हालत-ए-बद देखकर मुझे परेशान होना पड़ा। उसका रंग बेहद मैला और ज़र्द हो रहा था। खुली-खुली बेनूर आँखों के गिर्द स्याह हलक़े और भी गहरे हो गए थे। मुँह पर मेक-अप न था। खासतौर पर लिपस्टिक ना होने की वजह से वो बीमार और बूढ़ी लग रही थी। मुझे मा’लूम हो गया कि मेरे बताए डाक्टर का ईलाज तसल्ली बख़्श साबित हुआ। उसका पेट अंदर को धँसा हुआ था और सीना सपाट हो गया था। मुझे मा’लूम हुआ कि इस क़त्ल की मैं भी कुछ ज़िम्मेदार हूँ। मगर में डाक्टर का पता ना बताती तो कोई और बता देता। बिन बुलाए मेहमान को एक दिन निकाला तो मिलना ही था।

“एक मश्वरा लेने आई हूँ...” सांस क़ाबू में आते ही उसने कहा।
“जुम्मा जुम्मा आठ दिन बीते नहीं और मुर्दार को फिर मश्वरों की ज़रूरत आन पड़ी,” मैंने चिड़ कर सोचा, मगर निहायत ख़ंदा-पेशानी से कहा, “लो, ज़रूर लो। आजकल बहुत मश्वरे मेरे दिमाग़ में बज-बजा रहे हैं।” [...]

एक शौहर की ख़ातिर

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और ये सब कुछ बस ज़रा सी बात पर हुआ... मुसीबत आती है तो कह कर नहीं आती... पता नहीं वो कौन सी घड़ी थी कि रेल में क़दम रखा अच्छी भली ज़िंदगी मुसीबत हो गई।
बात ये हुई कि अगले नवम्बर में जोधपुर से बम्बई आ रही थी सबने कहा... “देखो पछताओगी मत जाओ...” मगर जब च्यूँटी के पर निकलते हैं तो मौत ही आती है।

सफ़र लंबा और रेल ज़्यादा हिलने वाली, नींद दूर और रेत के झपाके, ऊपर से तन्हाई, सारा का सारा डिब्बा ख़ाली पड़ा था। जैसे क़ब्रिस्तान में लंबी लंबी क़ब्रें हों... दिल घबराने लगा।
अख़बार पढ़ते पढ़ते तंग आ गई। दूसरा लिया... उसमें भी वही ख़बरें, दिल टूट गया। [...]

जोगिया

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नहा-धो कर नीचे के तीन-साढ़े तीन कपड़े पहने जोगिया रोज़ की तरह उस दिन भी अलमारी के पास आ खड़ी हुई। और मैं अपने हाँ से थोड़ा पीछे हट कर देखने लगा। ऐसे में दरवाज़े के साथ जो लगा तो चूँकि एक बे सुरी आवाज़ पैदा हुई। बड़े भैया जो पास ही बैठे शेव बना रहे थे मुड़ कर बोले, क्या है जुगल? कुछ नहीं मोटे भैया। मैंने उन्हें टालते हुए कहा, गर्मी बहुत है। और मैं फिर सामने देखने लगा। साढ़ी के सिलसिले में जोगिया आज कौन सा रंग चुनती है।
मैं जे-जे स्कूल ऑफ़ आर्ट्स में पढ़ता था। रंग मेरे हवास पा छाए रहते थे। रंग मुझे मर्द-औरतों से ज़ियादा नातिक़ मालूम होते थे। और आज भी होते हैं फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि लोग बे मानी बातें भी करते हैं लेकिन रंग कभी मानी से ख़ाली बात नहीं करते।

हमारा मकान कालबा देवी की वादी शीट आग्यारी लेन में था। पारसियों की आग्यारी तो कहीं दूर गली के मोड़ पर थी। यहाँ पर सिर्फ़ मकान थे। आमने-सामने और एक दूसरे से बग़ल-गीर हो रहे थे। इन मकानों की हम आग़ोशियाँ कहीं तो माँ-बच्चे के प्यार की तरह धीमी-धीमी मुलाइम-मुलाइम और साफ़-सुथरी थीं और कहीं मर्द औरत की मोहब्बत की तरह मजनूनाना सीना-ब-सीना लब-ब-लब, ग़लीज़ और मुक़द्दस...
सामने बाँपू घर की क़िस्म के कमरों में जो कुछ होता था। वो हमारे हाँ ज्ञान भवन से साफ़ दिखाई देता। अभी बिजूर की माँ तरकारी छील रही है और चाक़ू से अपना ही हाथ काट लिया है। डंकर भाई ने अहमद आबाद से तिल और तेल के दो पीपे मंगवाए हैं और पंजाबन सबकी नज़रें बचा कर अंडों के छिलके कूड़े के ढेर में फेंक रही है जैसे हमारे ज्ञान भवन से उन लोगों का खाया-पिया सब पता चलता था। ऐसे ही उन्हें भी हमारा सब अज्ञान नज़र आता होगा। [...]

दीवाली

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पूरब का तमाम आसमान गुलाबी रौशनी में जगमगा रहा था जैसे दीवाली के चराग़ों की सैकड़ों चादरें एक साथ लहलहा रही हों। उसने अलसा कर चटाई से अपने आपको उठाया। पतले मटियाले तकिए के नीचे से बुझी हुई बीड़ी निकाली और पास ही रखी हुई मिट्टी की नियाई में दबी उपले की आग सुलगाई। जल्दी-जल्दी दो दम लगाये। जैसे ही वो चिड़चिड़ा कर भड़की उसने मुँह से थूक दी और दूर से आती हुई आवाज़ को ग़ौर से सुनने की कोशिश की जैसे रात में चौकीदार क़दमों की चाप समझने की कोशिश करता है। अब वो मालिक की आवाज़ में ग़ुस्से से भुने हुए लफ़्ज़ों के पटाख़े सुनने लगा।
मेकुवा!

अबे मेकुवा के बच्चे!
क्या सांप सूँघ गया? [...]

نیا قانون

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لکھنو کے سر پر اختر نگر کا تاج رکھا تھا جس کے ہیرے کمہلانے اور موتی سنولانے لگے تھے۔ آہستہ خرام گومتی امام باڑہ آصفی کے چرن چھوکر آگے بڑھی تو ریزیڈنسی کے سامنے جیسے ٹھٹک کر کھڑی ہوگئی۔ موجوں نے بے قراری سےسر اٹھااٹھاکر دیکھا لیکن پہچاننے سے عاجز رہیں کہ ریزیڈنسی نواب ریزیڈنٹ بہادر کی کوٹھی کے بجائے انگریزوں کی چھاونی معلوم ہو رہی تھی۔ تمام برجوں اور فرازوں پر توپیں چڑھیں ہوئی تھیں۔ راؤٹیوں اور گمزیوں کا پورا جنگل لہلہا رہا تھا۔ حصا رپر انگریز سواروں اور پیدلوں کا ہجوم تھا۔ دونوں پھاٹکوں کے دونوں دروں پربندوقیں تنی ہوئی تھیں۔
پھر راہ چلتوں نے دیکھا کہ قیصر باغ کی طرف سے آنے والی سڑک حیدری پلٹن کے سواروں سے جگمگانے لگی جن کی وردیاں دولہا کے لباسوں کی طرح بھڑکدار اور ہتھیار دولہن کے زیوروں کی طرح چمکدار تھے۔ ریزیڈنسی کے جنوبی پھاٹک پر چھلبل کرتے سواروں کے پردے سے وزیر اعظم نواب علی نقی خاں اور وکیل السلطنت موتمن الدولہ کے بوچے برآمدہوئے جن کے درمیان دس پندرہ سواروں کے اردل کا حجاب تھا اور سامنے انگریز سپاہیوں کے ہتھیاروں کی دیواریں کھڑی تھیں۔ دیر کے انتظار کے بعد افسرالتشریفات نے آکر ان سواریوں سے اتارا اور اپنے اردل کے حلقے میں پیادہ پیش دامان تک لے گیا جس کی سیڑھیوں پر سر سے پاؤں تک اپچی بنےہوئے گارڈز کا دستہ کھڑا تھاجیسے زینت کے لیے مجسمے نصب کردیے گیے ہوں۔

کشتی دار تکیوں کی آبنوسی کرسی پر وہ دونوں پڑے سوکھتے رہے۔ اپنے ذاتی محافظ رسالے کے متعلق سوچتے رہے جو پھاٹک پر روک لیا گیا تھا اور مغربی دروازے سے داخل ہونے والی توپوں کی گڑگڑاہٹ سنتے رہے۔ پھر فوجی افسروں کے جھرمٹ میں وہ ریزیڈنٹ کی اسٹڈی میں باریاب ہوئے۔ ریزیڈنٹ بہادر اسی طرح کرسی پر پڑے رہے۔ ابرو کے اشارے پر وزیر اعظم اور وکیل السلطنت اس طرح بیٹھ گیے جیسے وہ ریزیڈنٹ کی اسٹڈی میں نہیں واجد علی شاہ کے دربار میں کرسی نشینی سے سرفراز کیے گیے ہوں۔ تامل کے بعد صاحب بہادر نے اپنے پہلو میں کھڑے ہوئے میر منشی صلابت علی کو سرکی جنبش سے اشارہ کیا اورمیر منشی ایک خریطہ کھول کر پڑھنے لگا اور جب اس کے منھ سے یہ فقرہ ادا ہوا، ’’کمپنی بہادر نے پچاس لاکھ سالانہ کے وظیفے کے عوض میں سلطنت کا الحاق کرلیا۔‘‘ تو وکیل السلطنت کہ سپاہی بچہ تھا ہرچند کہ سپہ گری کے سبق بھول چکا تھا تاہم نیزے کی طرح تن کر کھڑا ہوگیا۔
’’یہ ناممکن ہے۔‘‘ [...]

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