उसकी सांस फूली हुई थी। लिफ़्ट ख़राब होने की वजह से वो इतनी बहुत सी सीढ़ियाँ एक ही साँस में चढ़ आई थी। आते ही वो बेसुध पलंग पर गिर पड़ी और हाथ के इशारे से मुझे ख़ामोश रहने को कहा। मैं ख़ुद ख़ामोश रहने के मूड में थी। मगर उस की हालत-ए-बद देखकर मुझे परेशान होना पड़ा। उसका रंग बेहद मैला और ज़र्द हो रहा था। खुली-खुली बेनूर आँखों के गिर्द स्याह हलक़े और भी गहरे हो गए थे। मुँह पर मेक-अप न था। खासतौर पर लिपस्टिक ना होने की वजह से वो बीमार और बूढ़ी लग रही थी। मुझे मा’लूम हो गया कि मेरे बताए डाक्टर का ईलाज तसल्ली बख़्श साबित हुआ। उसका पेट अंदर को धँसा हुआ था और सीना सपाट हो गया था। मुझे मा’लूम हुआ कि इस क़त्ल की मैं भी कुछ ज़िम्मेदार हूँ। मगर में डाक्टर का पता ना बताती तो कोई और बता देता। बिन बुलाए मेहमान को एक दिन निकाला तो मिलना ही था। “एक मश्वरा लेने आई हूँ...” सांस क़ाबू में आते ही उसने कहा। “जुम्मा जुम्मा आठ दिन बीते नहीं और मुर्दार को फिर मश्वरों की ज़रूरत आन पड़ी,” मैंने चिड़ कर सोचा, मगर निहायत ख़ंदा-पेशानी से कहा, “लो, ज़रूर लो। आजकल बहुत मश्वरे मेरे दिमाग़ में बज-बजा रहे हैं।”
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