अन्न-दाता

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(1)
वो आदमी जिसके ज़मीर में कांटा है

(एक ग़ैर मुल्की कौंसिल के मकतूब जो उसने अपने अफ़्सर आला को कलकत्ता से रवाना किए)
8 अगस्त 1943 –कलाइव स्ट्रीट, मून शाईन ला। [...]

नजात

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(1)
दुखी चमार दरवाज़े पर झाड़ू लगा रहा था, और उसकी बीवी झरिया घर को लीप रही थी। दोनों अपने अपने काम से फ़राग़त पा चुके, तो चमारिन ने कहा,

“तो जा कर पण्डित बाबा से कह आओ। ऐसा न हो कहीं चले जाएँ।”
दुखी, “हाँ जाता हूँ, लेकिन ये तो सोच कि बैठेंगे किस चीज़ पर?” [...]

कफ़न

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(1)
झोंपड़े के दरवाज़े पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने ख़ामोश बैठे हुए थे और अन्दर बेटे की नौजवान बीवी बुधिया दर्द-ए-ज़ेह से पछाड़ें खा रही थी और रह-रह कर उसके मुँह से ऐसी दिल-ख़राश सदा निकलती थी कि दोनों कलेजा थाम लेते थे।

जाड़ों की रात थी, फ़ज़ा सन्नाटे में ग़र्क़, सारा गाँव तारीकी में जज़्ब हो गया था।
घीसू ने कहा, “मालूम होता है बचेगी नहीं। सारा दिन तड़पते हो गया, जा देख तो आ।” [...]

عشق بالواسطہ

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لارڈ کرزن ہندستان کے سابق وائسرائے اور انگلستان کے مشہور سیاست داں کی بابت مشہور تھا کہ وہ ’’میں‘‘ کااستعمال بہت کرتے تھے۔ قیصر ولیم شہنشاہ جرمنی میں بھی لوگ یہی عیب بتاتے تھے۔ نفسیات کے ماہرین کہا کرتے تھے کہ یہ لوگ اپنی انانیت کی وجہ سے وہ ٹھوکریں کھائیں گے کہ ان کے مرنے کے بعد بھی دوسرے یاد رکھیں گے۔ وہ دونوں تو چل بسے۔ اب اس زمانے میں ایک ہم ہی خودی کے قدردان رہ گئے ہیں، رہے نام اللہ کا۔
تو ہم بھی کب تک، ناظرین کو اگر میری بات میں شک ہو تو واحد متکلم کا صیغہ اس تحریر میں گنتے جائیں۔ ہاتھ کنگن کو آرسی کیا ہے۔ معلوم ہی ہو جائےگا میرے ان دونوں ہم خیالوں میں صفات یہی تھے جن کو سراہنے میں ان کو لطف آتا تھا۔ ہم میں ذری صفات کی کمی رہ گئی ہے۔ اس لیے ہم اپنے عیوب ہی کا ذکر کرکے سڑا سا منھ سوندھا کرتے ہیں۔ عیوب کا لفظ تو ہم نے مصنف خوار معترضین کا منھ بند کرنے کے لیے استعمال کیا ہے۔ اگر ہم ان کو واقعی عیب سمجھتے تو بیان ہی کرنے کیوں بیٹھتے۔ زیادہ سے زیادہ یہ تھا کہ کمزوریاں کہہ دیتے وہ بھی آپ کی خاطر سے ورنہ ہم تو ان کو صفات ہی سمجھتے۔

اپنے عیوب اور صفات کی طویل فہرست میں ہم جس عیب کا تذکرہ کرنے جاتے ہیں وہ صنف نازک سے تعلق رکھتا ہے۔ دنیا عجیب جگہ ہے۔ یہاں دل میں کچھ ہو مگر زبان پر وہی ہوگا جس کو سننے والے اور کہنے والا سب ہی جھوٹ جانتے ہیں۔ مگر سچ پکارتے رہتے ہیں۔ آپس میں سمجھوتہ اسی پر ٹھہرا ہے جیسے چوروں میں ہوتا ہے۔ عورت کا نام آیا نہیں کہ ان حضرات کا ذہن عیوب کی طرف منتقل ہوا نہیں۔ اب لاحول ولا قوۃ ہے، الحیاہ من الایمان ہے، استغفراللہ کا زور بندھا ہے۔ دل کا حال تو خدا ہی جانتا ہے کہ صرف منھ میں شیخ فرید ہے ورنہ بغل میں اینٹیں ہم سے بھی زیادہ لیے ہیں اور ہم ہیں کہ حافظ شیرازی، شیخ سعدی اور عمر خیام رحمہم اللہ تعالیٰ کے قدموں سے لگے مونچھوں پر تاؤ دیتے چلے جاتے ہیں۔
من ارچہ عاشقم ور ندمست و نامہ سیاہ [...]

नफ़रत

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अजीब वाक़ियात तो दुनिया में होते ही रहते हैं मगर एक मामूली सा वाक़िया नाज़ली की तबीअत को यक-लख़्त क़तई तौर पर बदल दे, ये मेरे लिए बेहद हैरान-कुन बात है। उसकी ये तब्दीली मेरे लिए मुअम्मा है। चूँकि इस वाक़ये से पहले मुझे यक़ीन था कि उसकी तबीअत को बदलना क़तई ना-मुमकिन है। इ लिए अब मैं ये महसूस कर रही हूँ कि नाज़ली वो नाज़ली ही नहीं रही जो बचपन से अब तक मेरी सहेली थी। जैसे उसकी इस तब्दीली में इन्सान की रूह की हक़ीक़त का भेद छुपा है। तअज्जुब की बात तो ये है कि वो एक बहुत ही मामूली वाक़िया था यानी किसी भद्दे से बदनुमा आदमी से ख़ुदा वास्ते का बुग़्ज़ महसूस करना... कितनी आम सी बात है।
सहेली के अलावा वो मेरी भाबी थी। क्यूँकि उसकी शादी भाई मुज़फ़्फ़र से हो चुकी थी। इस बात को तक़रीबन दो साल गुज़र चुके थे। मुज़फ़्फ़र मेरे मामूँ ज़ाद भाई हैं और जालंधर में वकालत करते हैं।

ये वाक़या लाहौर स्टेशन पर हुआ। उस रोज़ मैं और नाज़ली दोनों लायलपुर से जालंधर को आ रही थीं।
एक छोटे से दर्मियाने दर्जे के डिब्बे में हम दोनों अकेली बैठी थीं। नाज़ली पर्दे की सख़्त मुख़ालिफ़ थी। बुर्क़े का बोझ उठाना उससे दूभर हो जाता था। इसलिए गाड़ी में दाख़िल होते ही उसने बुर्क़ा उतार कर लपेटा और सीट पर रख दिया। उस रोज़ उसने ज़र्द रंग की रेशमी साड़ी पहनी हुई थी जिसमें तिलाई हाशिया था। ज़र्द रंग उसे बहुत पसंद था और उसके गोरे गोरे जिस्म में गुलाबी झलक पैदा कर देता था। [...]

वापसी का टिकट

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इंसान ने इंसान को ईज़ा पहुँचाने के लिए जो मुख़्तलिफ़ आले और तरीक़े इख़्तियार किए हैं उनमें सबसे ज़ियादा ख़तरनाक है टेलीफ़ोन साँप के काटे का मंत्र तो हो सकता है मगर टेलीफ़ोन के मारे को तो पानी भी नहीं मिलता।
मुझे तो रात-भर इस कम्बख़्त के डर से नींद नहीं आती कि सुब्ह-सवेरे न जाने किस की मनहूस आवाज़ सुनाई देगी। दो ढ़ाई बजे आँख लग भी गई तो ख़्वाब में क्या देखता हूँ कि सारी दुनिया की घंटियाँ और घंटे-घड़ियाल बेक-वक़्त बजने शुरू’ हो गए। मंदिरों के पीतल के बड़े-बड़े घंटे, पुलिस के थाने का घड़ियाल, दरवाज़ों की बिजली वाली घंटियाँ, साईकलों की ट्रिंग-ट्रिंग, फ़ायर इंजनों की क्लिंग-क्लिंग। और जब आँख खुलती है तो मा’लूम होता है कि टेलीफ़ोन की घंटी बज रही है। इस ग़ैर वक़्त रात को किस का फ़ोन आया है? ज़रूर ट्रंक काल होगी। पल-भर में न जाने कितने वहम दिल धड़काते हैं। एक दोस्त मद्रास में बीमार है। एक रिश्तेदार लंदन और बंबई के दरमियान हवाई जहाज़ में है। भतीजे का मैट्रिक का नतीजा निकलने वाला है।

मैं फ़ोन उठाकर कहता हूँ, “हैलो।”
दूसरी तरफ़ से घबराई हुई आवाज़ आती है, “चुन्नी भाई, केम छो।” मैं कहता हूँ कि यहाँ न कोई चुन्नी भाई है न केम छो। मगर वो कहता है, “चुन्नी भाई। टाटा डलीज़ डार पर जा रहा है।” मैं कहता हूँ, “जाने दो।” [...]

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