एक थी लैला, एक था मजनूँ। मगर लैला का नाम लैला नहीं था, लिली था, लिली डी सूज़ा। वो दोनों और उनके क़बीले सहरा-ए-अरब में नहीं रहते थे। माहिम और बांद्रा के बीच में सड़क के नीचे और खारी पानी की खाड़ी के किनारे जो झोंपड़ियों की बस्ती है वहाँ रहते थे। मगर सहरा-ए-अरब की तरह इस बस्ती में भी पानी की कमी थी। डेढ़ सौ झोंपड़ियों में जो सात सौ मर्द, औरतें और बच्चे रहते थे। इन सब के लिए मीठे पानी का सिर्फ़ एक नल था और इस नल में सिर्फ़ दो घंटे सुब्ह और दो घंटे शाम को पानी आता था। एक कनस्तर या एक घड़ा पानी लेने के लिए कई कई घंटे पहले से लाईन लगानी पड़ती थी। एक रात को मोहन झोंपड़ी में अपने बाप की खटिया के नीचे सो रहा था कि उसकी माँ ने उसे झिंझोड़ कर उठाया। “मोहन, ए मोहन जा, नल पर अपनी गागर लाईन में रख के आ, नहीं तो पानी नहीं मिलेगा।” मोहन की उम्र उस वक़्त मुश्किल से नौ बरस की होगी और नौ बरस के बच्चे को जो दिन-भर कीचड़ मिट्टी में दौड़ता भागता रहा हो, बड़ी पक्की नींद आती है। आधी रात को उसे उठाना आसान नहीं है।
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