बर्फ़बारी से पहले

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“आज रात तो यक़ीनन बर्फ़ पड़ेगी”, साहिब-ए-ख़ाना ने कहा। सब आतिश-दान के और क़रीब हो के बैठ गए। आतिश-दान पर रखी हुई घड़ी अपनी मुतवाज़िन यकसानियत के साथ टक-टक करती रही। बिल्लियाँ कुशनों में मुँह दिए ऊँघ रही थीं, और कभी-कभी किसी आवाज़ पर कान खड़े कर के खाने के कमरे के दरवाज़े की तरफ़ एक आँख थोड़ी सी खोल कर देख लेती थीं। साहिब-ए-ख़ाना की दोनों लड़कियाँ निटिंग में मशग़ूल थीं। घर के सारे बच्चे कमरे के एक कोने में पुराने अख़बारों और रिसालों के ढेर पर चढ़े कैरम में मसरूफ़ थे।
बौबी मुमताज़ खिड़की के क़रीब ख़ामोश बैठा इन सबको देखता रहा।

“हाँ आज रात तो क़तई’ बर्फ़ पड़ेगी”, साहिब-ए-ख़ाना के बड़े बेटे ने कहा।
“बड़ा मज़ा आएगा। सुब्ह को हम स्नोमैन बनाएँगे”, एक बच्चा चिल्लाया। [...]

क़ैदख़ाना

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अबे ओ राम लाल, ठहर तो सही। हम भी आ रहे हैं।


दो आदमी हाथों में डंडे लिए नशे में चूर झूमते आ रहे थे, राम लाल जो आगे-आगे चल रहा था, डंडा सँभालता हुआ उनकी तरफ़ मुड़ा, जो अब मस्ती से गले लग रहे थे। हवा बंद थी और गर्मी से दम घुटा जाता था। वो सब ताड़ी ख़ाना से लौट रहे थे।
[...]

बर्फ़बारी से पहले

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“आज रात तो यक़ीनन बर्फ़ पड़ेगी”, साहिब-ए-ख़ाना ने कहा। सब आतिश-दान के और क़रीब हो के बैठ गए। आतिश-दान पर रखी हुई घड़ी अपनी मुतवाज़िन यकसानियत के साथ टक-टक करती रही। बिल्लियाँ कुशनों में मुँह दिए ऊँघ रही थीं, और कभी-कभी किसी आवाज़ पर कान खड़े कर के खाने के कमरे के दरवाज़े की तरफ़ एक आँख थोड़ी सी खोल कर देख लेती थीं। साहिब-ए-ख़ाना की दोनों लड़कियाँ निटिंग में मशग़ूल थीं। घर के सारे बच्चे कमरे के एक कोने में पुराने अख़बारों और रिसालों के ढेर पर चढ़े कैरम में मसरूफ़ थे।
बौबी मुमताज़ खिड़की के क़रीब ख़ामोश बैठा इन सबको देखता रहा।

“हाँ आज रात तो क़तई’ बर्फ़ पड़ेगी”, साहिब-ए-ख़ाना के बड़े बेटे ने कहा।
“बड़ा मज़ा आएगा। सुब्ह को हम स्नोमैन बनाएँगे”, एक बच्चा चिल्लाया। [...]

क़ैदख़ाना

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अबे ओ राम लाल, ठहर तो सही। हम भी आ रहे हैं।


दो आदमी हाथों में डंडे लिए नशे में चूर झूमते आ रहे थे, राम लाल जो आगे-आगे चल रहा था, डंडा सँभालता हुआ उनकी तरफ़ मुड़ा, जो अब मस्ती से गले लग रहे थे। हवा बंद थी और गर्मी से दम घुटा जाता था। वो सब ताड़ी ख़ाना से लौट रहे थे।
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आदमी

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खिड़की के नीचे उन्हें गुज़रता हुआ देखता रहा। फिर यकायक खिड़की ज़ोर से बंद की। मुड़कर पंखे का बटन ऑन किया। फिर पंखे का बटन ऑफ़ किया। मेज़ के पास कुर्सी पे टिक कर धीमे से बोला, “आज तवक्कुल से भी ज़ियादा हैं। रोज़ बढ़ते ही जा रहे हैं।”
सरफ़राज़ ने हथेलियों पर से सर उठाया और अनवार को देखा, “तुमने तो दो ही दिन देखा है ना। मैं बहुत दिन से देख रहा हूँ। खिड़की बंद रखूँ तो घुटन होती है, खोल दूँ तो दिल और ज़ियादा घबराता है। लगता है जैसे सब इधर ही आ रहे हों।”

सरफ़राज़ चुप हो गया। फिर एक लम्हे के बा’द बोला, “आज तुमसे इतने बरसों के बा’द मुलाक़ात हुई थी तो दिल कितना ख़ुश था कि फिर ये लोग...”
“मैंने तुम्हें सफ़र का वाक़ि’आ भी तो बता दिया था। मैं भी सिर्फ़ दो ही दिन से थोड़े ही देख रहा हूँ। उधर गाँव में भी आजकल यही ‘आलम है। कुछ अंदाज़ा ही नहीं हो पाता क्या होगा।” [...]

महावटों की एक रात

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गड़ गड़! गड़ड़ड़! इलाही ख़ैर! मालूम होता है कि आसमान टूट पड़ेगा। कहीं छत तो नहीं गिर रही। गड़ड़ड़ड़! उस के साथ ही टूटे हुए किवाड़ों की झिर्रियाँ एक तड़पती हुई रोशनी से चमक उठीं। हवा के एक तेज़ झोंके ने सारी इमारत को हिला कर रख दिया। सो-सौ सौ दर्द! क्या सर्दी है! यख़ जमी जाती है। बर्फ़ जमी जाती है, कपकपी है कि सारे जिस्म को तोड़े डालती है।
एक छोटे से मकान 24x 24 फिट और उसमें भी आधे से ज़्यादा में एक तंग दालान और उसके पीछे एक पतला सा कमरा, नीचा और अंधेरा। कोई फ़र्श नहीं। कुछ फटे पुराने बोरिये और टाट ज़मीन पर बिछे हैं जो गर्द और सिल से चिप-चिप कर रहे हैं। कोनों में बुग़चियों और गूदड़ का एक ढेर है। एक अकेला काठ का टूटा हुआ संदूक़, उस पर भी मिट्टी के बर्तन जो साल-हा-साल के इस्तिमाल से काले हो गए हैं और टूटते टूटते आधे पौने रह गए हैं। उनमें एक ताँबे की पतीली भी है जिसके किनारे झड़ चुके हैं। बरसों से क़लई तक नहीं हुई और घिसते घिसते पेन्दा जवाब देने के क़रीब है।

छत है कि कड़ियाँ रह गईं हैं और उस पर बारिश! या अल्लाह क्या महावटें अब के ऐसी बरसेंगी कि गोया उनको फिर बरसना ही नहीं। अब तो रोक दो। कहाँ जाऊं, क्या करूँ। इससे तो मौत ही आ जाये! तू ने ग़रीब ही क्यों बनाया। या अच्छे दिन ही ना दिखाये होते या ये हालत है कि लेटने को जगह नहीं। छत छलनी की तरह टपके जाती है। बिल्ली के बच्चों की तरह सब कोने झांक लिए लेकिन चैन कहाँ। मेरा तो ख़ैर कुछ नहीं, बच्चे निगोड मारों की मुसीबत है। ना मालूम सो भी कैसे गए हैं।
सर्दी है कि उफ़! बोटी बोटी काँपी जाती है और इस पर एक लिहाफ़ और चार जानें! ए मेरे अल्लाह ज़रा तो रहम कर। या वो ज़माना था कि महल थे, नौकर थे, गिरिश और पलंग थे। आह! वो मेरा कमरा! एक छप्पर खट सुनहरी पर्दों से ज़रक़-बरक़, मख़मल की चादरें और सुंबुल के तकिए। क्या नरम नरम तोशक थी कि लेटने से नींद आ जाये और लिहाफ़ आह! रेशमें छींट का और इस पर सच्चे फटे की गोट। अन्नाएं मामाएं खड़ी हैं, बीवी सर दबाऊं, बीवी पैर दबाऊं? कोई तेल डाल रही है कोई हाथ मल रही है। गुदगुदा गुदगुदा बिस्तरा, ऊपर से ये सब चोंचले, नींद है कि कहकशानी कपड़े पहने सामने खड़ी है। [...]

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