मेरा नाम राधा है

Shayari By

ये उस ज़माने का ज़िक्र है जब इस जंग का नाम-ओ-निशान भी नहीं था। ग़ालिबन आठ नौ बरस पहले की बात है जब ज़िंदगी में हंगामे बड़े सलीक़े से आते थे। आज कल की तरह नहीं कि बेहंगम तरीक़े पर पै-दर-पै हादिसे बरपा हो रहे हैं, किसी ठोस वजह के बग़ैर।
उस वक़्त मैं चालीस रुपया माहवार पर एक फ़िल्म कंपनी में मुलाज़िम था और मेरी ज़िंदगी बड़े हमवार तरीक़े पर उफ़्तां-ओ-ख़ेज़ां गुज़र रही थी। या’नी सुबह दस बजे स्टूडियो गए। नियाज़ मोहम्मद विलेन की बिल्लियों को दो पैसे का दूध पिलाया। चालू फ़िल्म के लिए चालू क़िस्म के मकालमे लिखे। बंगाली ऐक्ट्रस से जो उस ज़माने में बुलबुल-ए-बंगाल कहलाती थी, थोड़ी देर मज़ाक़ किया और दादा गोरे की जो इस अह्द का सबसे बड़ा फ़िल्म डायरेक्टर था, थोड़ी सी ख़ुशामद की और घर चले आए।

जैसा कि मैं अ’र्ज़ कर चुका हूँ, ज़िंदगी बड़े हमवार तरीक़े पर उफ़्तां-ओ-ख़ेज़ां गुज़र रही थी स्टूडियो का मालिक “हुरमुज़ जी फ्रॉम जी” जो मोटे मोटे लाल गालों वाला मौजी क़िस्म का ईरानी था, एक अधेड़ उम्र की ख़ोजा ऐक्ट्रस की मोहब्बत में गिरफ़्तार था।
हर नौ-वारिद लड़की के पिस्तान टटोल कर देखना उसका शग़ल था। कलकत्ता के बू बाज़ार की एक मुसलमान रंडी थी जो अपने डायरेक्टर, साउंड रिकार्डिस्ट और स्टोरी राईटर तीनों से ब-यक-वक़्त इश्क़ लड़ा रही थी। उस इश्क़ का दर अस्ल मतलब ये था कि न तीनों का इलतिफ़ात उसके लिए ख़ासतौर पर महफ़ूज़ रहे। [...]

मेरा नाम राधा है

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ये उस ज़माने का ज़िक्र है जब इस जंग का नाम-ओ-निशान भी नहीं था। ग़ालिबन आठ नौ बरस पहले की बात है जब ज़िंदगी में हंगामे बड़े सलीक़े से आते थे। आज कल की तरह नहीं कि बेहंगम तरीक़े पर पै-दर-पै हादिसे बरपा हो रहे हैं, किसी ठोस वजह के बग़ैर।
उस वक़्त मैं चालीस रुपया माहवार पर एक फ़िल्म कंपनी में मुलाज़िम था और मेरी ज़िंदगी बड़े हमवार तरीक़े पर उफ़्तां-ओ-ख़ेज़ां गुज़र रही थी। या’नी सुबह दस बजे स्टूडियो गए। नियाज़ मोहम्मद विलेन की बिल्लियों को दो पैसे का दूध पिलाया। चालू फ़िल्म के लिए चालू क़िस्म के मकालमे लिखे। बंगाली ऐक्ट्रस से जो उस ज़माने में बुलबुल-ए-बंगाल कहलाती थी, थोड़ी देर मज़ाक़ किया और दादा गोरे की जो इस अह्द का सबसे बड़ा फ़िल्म डायरेक्टर था, थोड़ी सी ख़ुशामद की और घर चले आए।

जैसा कि मैं अ’र्ज़ कर चुका हूँ, ज़िंदगी बड़े हमवार तरीक़े पर उफ़्तां-ओ-ख़ेज़ां गुज़र रही थी स्टूडियो का मालिक “हुरमुज़ जी फ्रॉम जी” जो मोटे मोटे लाल गालों वाला मौजी क़िस्म का ईरानी था, एक अधेड़ उम्र की ख़ोजा ऐक्ट्रस की मोहब्बत में गिरफ़्तार था।
हर नौ-वारिद लड़की के पिस्तान टटोल कर देखना उसका शग़ल था। कलकत्ता के बू बाज़ार की एक मुसलमान रंडी थी जो अपने डायरेक्टर, साउंड रिकार्डिस्ट और स्टोरी राईटर तीनों से ब-यक-वक़्त इश्क़ लड़ा रही थी। उस इश्क़ का दर अस्ल मतलब ये था कि न तीनों का इलतिफ़ात उसके लिए ख़ासतौर पर महफ़ूज़ रहे। [...]

शातिर की बीवी

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(1)
उम्दा किस्म का सियाह-रंग का चमकदार जूता पहन कर घर से बाहर निकलने का असल लुतफ़ तो जनाब जब है जब मुँह में पान भी हो, तंबाकू के मज़े लेते हुए जूते पर नज़र डालते हुए बेद हिलाते जा रहे हैं। यही सोच कर में जल्दी-जल्दी चलते घर से दौड़ा। जल्दी में पान भी ख़ुद बनाया। अब देखता हूँ तो छालीया नदारद। मैंने ख़ानम को आवाज़ दी कि छालीया लाना और उन्होंने उस्तानी जी को पुकारा। उस्तानी जी वापिस मुझे पुकारा कि वो सामने ताक़ में रखी है। मैं दौड़ा हुआ पहुंचा। एक रकाबी में कटी और बे कटी यानी साबित छालीया रखी हुई थी। सरौता भी रखा हुआ था और सुबे से ताज्जुब की बात ये कि शतरंज का एक रख़स भी छालीया के साथ कटा रखा था। इस के तीन टुकड़े थे। एक तो आधा और दो पाओ पाओ। साफ़ ज़ाहिर है कि छालीया के धोके में कतरा गया है, मगर यहां किधर से आया। ग़ुस्सा और रंज तो गुमशुदगी का वैसे ही था। अब रुख की हालत-ए-ज़ार जो देखी तो मेरा वही हाल हुआ जो अली-बाबा का क़ासिम की लाश को देखकर हुआ था। ख़ानम के सामने जा कर रकाबी जूं की तूं रख दी। ख़ानम ने भवें चढ़ा कर देखा और यक-दम उनके ख़ूबसूरत चेहरे पर ताज्जु-बख़ेज़ मुस्कुराहट सी आकर रख गई और उन्होंने मस्नूई ताज्जुब से उस्तानी जी की तरफ़ रकाबी करते हुए देखा। उस्तानी जी एक दम से भवें चढ़ा कर दाँतों तले ज़बान दाब के आँखें फाड़ दें, फिर संजीदा हो कर बोलीं,

जब ही तो मैं कहूं या अल्लाह इतनी मज़बूत और सख़्त छालीया कहाँ से आ गई। कल रात अंधेरे में कट गया। जब से रकाबी जूं की तूं वहीं रखी है।
अजी ये यहां आया कैसे ? मैंने तेज़ हो कर कहा। [...]

आनंदी

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बलदिया का इजलास ज़ोरों पर था। हाल खचाखच भरा हुआ था और खिलाफ़-ए-मा’मूल एक मेम्बर भी ग़ैर-हाज़िर न था। बलदिया के ज़ेर-ए-बहस मस्अला ये था कि ज़नान-बाज़ारी को शह्​र बदर कर दिया जाए क्योंकि उनका वुजूद इन्सानियत, शराफ़त और तहज़ीब के दामन पर बदनुमा दाग़ है।
बलदिया के एक भारी भरकम रुक्न जो मुल्क-ओ-क़ौम के सच्चे ख़ैर-ख़्वाह और दर्द-मंद समझे जाते थे निहायत फ़साहत से तक़रीर कर रहे थे।

“और फिर हज़रात आप ये भी ख़याल फ़रमाइए कि उनका क़याम शह्​र के एक ऐसे हिस्से में है जो न सिर्फ़ शह्​र के बीचों बीच आम गुज़र-गाह है बल्कि शह्​र का सबसे बड़ा तिजारती मर्कज़ भी है चुनाँचे हर शरीफ़ आदमी को चार-ओ-ना-चार इस बाज़ार से गुज़रना पड़ता है। अलावा अज़ीं शुरफ़ा की पाक दामन बहू बेटियाँ इस बाज़ार की तिजारती अहमियत की वज्ह से यहाँ आने और ख़रीद-ओ-फ़रोख़्त करने पर मजबूर हैं। साहिबान! ये शरीफ़ ज़ादियाँ इन आबरू बाख़्ता, नीम उरियाँ बेस्वाओं के बनाव सिंगार को देखती हैं तो क़ुदरती तौर पर उनके दिल में भी आराइश-ओ-दिलरुबाई की नई-नई उमंगें और वलवले पैदा होते हैं और वो अपने ग़रीब शौहरों से तरह-तरह के गाज़ों, लेवेनडरों, ज़र्क़-बर्क़ साड़ियों और क़ीमती ज़ेवरों की फरमाइशें करने लगती हैं। नतीजा ये होता है कि उनका पुर-मसर्रत घर, उनका राहत-कदा हमेशा के लिए जहन्नम का नमूना बन जाता है।”
“और साहिबान फिर आप ये भी तो ख़याल फ़रमाइए कि हमारे नौ-निहालान-ए-क़ौम जो दर्सगाहों में ता’लीम पा रहे हैं और उनकी आइन्दा तरक़्क़ियों से क़ौम की उम्मीदें वाबस्ता हैं और क़यास कहता है कि एक न एक दिन क़ौम की कश्ती को भंवर से निकालने का सहरा उन्ही के सर बंधेगा, उन्हें भी सुब्ह शाम इसी बाज़ार से होकर आना-जाना पड़ता है। ये क़हबाएँ हर वक़्त बारा उभरन सोलह सिंगार किए राह-रौ पर बे-हिजाबाना निगाह-ओ-मिज़ह के तीर-ओ-सिनाँ बरसाती और उसे दावत-ए-हुस्न देती हैं। क्या इन्हें देख कर हमारे भोले-भाले ना-तजुर्बेकार जवानी के नशे में मह्व, सूद-ओ-ज़ियाँ से बे-परवाह नौ-निहालान-ए-क़ौम अपने जज़्बात-ओ-ख़यालात और अपनी आला सीरत को मा’सियत के मस्मूम असरात से महफ़ूज़ रख सकते हैं? साहिबान! क्या उनका हुस्न ज़ाहिद फ़रेब हमारे नौ-निहालान-ए-क़ौम को जादा-ए-मुस्तक़ीम से भटका कर, उनके दिल में गुनाह की पुर-असरार लज़्ज़तों की तिश्नगी पैदा करके एक बेकली, एक इज़्तिराब, एक हैजान बरपा न कर देता होगा।” [...]

रौग़नी पुतले

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शहर का इलिट शॉपिंग सेंटर... जिसकी दीवारें, शेल्फ़, अलमारियां बिलौर की बनी हुई हैं। जिसका बना सजा फ़ेकेड जलते-बुझते रंगदार साइज़ से मुज़य्यन है। जिसके काउंटर्ज़ मुख़्तलिफ़ रंगों के गुलू क्लर्ज़ पेंटस की धारियों से सजे हुए हैं और शेल्फ़ दीदा ज़ेब सामान से लदे हैं जिसके काउंटरों पर स्मार्ट मुतबस्सिम लड़कियां और लड़के यूं ईस्तादा हैं जैसे वो भी प्लास्टिक के पुतले हों। जो उनके इर्दगिर्द यहां वहां सारे हाल में जगह जगह रंगा-रंग लिबास पहने खड़े हैं... हाल फ़ैशन आर्केड से कौन वाक़िफ़ नहीं।
चाहे उन्हें कुछ न ख़रीदना हो, लोग किसी न किसी बहाने फ़ैशन आर्केड का फेरा ज़रूर लगाते हैं। वहां घूमते फिरते नज़र आना एक हैसियत पैदा कर देता है। कुछ पाश चीज़ों और नए डिज़ाइनों को देखने आते हैं ताकि महफ़िलों में लेटस्ट फ़ैशन की बात कर के उप टू डेट होने का रोब जमा सकें। नौजवान आर्केड में घूमने फिरने वालियों को निगाहों से टटोलने आते हैं। गुंडे सेल गर्लज़ से अटास्टा लगाने की कोशिश करते हैं। लड़कियां अपनी नुमाइश के लिए आती हैं। बूढ़े ख़ाली आँखें सेंकते हैं। घाग बेगमात ग्रीन यूथ की टोह में आती हैं। वो सिर्फ़ फ़ैशन आर्केड ही नहीं, रूमान आर्केड भी है, क्यों न हो। आज मुहब्बत भी तो फ़ैशन ही है।

कौन सी चीज़ है जो फ़ैशन आर्केड मुहय्या नहीं करता। ज़रबफ्त से गाढे तक। मोस्ट माडर्न गैजट्स से सुई सलाई तक सी थ्रो से रंगीन मालाओं तक। सब कुछ वहां मौजूद है। लोग घूम घाम कर थक जाते हैं तो आर्केड के रेस्तोराँ में काफ़ी का प्याला लेकर बैठ जाते हैं।
फ़ैशन आर्केड की अहमियत का ये आलम है कि फ़ोरेन डिग्नीटरीज़ ने ख़रीद-ओ-फ़रोख़त करनी हो तो उन्हें ख़ास इंतिज़ामात के तहत आर्केड में लाया जाता है। [...]

डॉक्टर शिरोडकर

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बंबई में डॉक्टर शिरोडकर का बहुत नाम था। इसलिए कि औरतों के अमराज़ का बेहतरीन मुआलिज था। उसके हाथ में शफ़ा थी। उसका शिफ़ाख़ाना बहुत बड़ा था, एक आलीशान इमारत की दो मंज़िलों में जिनमें कई कमरे थे, निचली मंज़िल के कमरे मुतवस्सित और निचले तबक़े की औरतों के लिए मख़सूस थे। बालाई मंज़िल के कमरे अमीर औरतों के लिए।
एक लेबोरेटरी थी। उसके साथ ही कमपाउन्डर का कमरा। ऐक्स रे का कमरा अलाहिदा था। उसकी माहाना आमदनी ढाई-तीन हज़ार के क़रीब होगी।

मरीज़ औरतों के खाने का इंतिज़ाम बहुत अच्छा था जो उसने एक पारसन के सुपुर्द कर रखा था जो उसकी एक दोस्त की बीवी थी।
डॉक्टर शिरोडकर का ये छोटा सा हस्पताल मेटर्निटी होम भी था। बंबई की आबादी के मुतअल्लिक़ आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कितनी होगी। वहां बेशुमार सरकारी हस्पताल और मेटर्निटी होम हैं, लेकिन इसके बावजूद डाक्टर शिरोडकर का क्लीनिक भरा रहता। [...]

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