परेशानी का सबब

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नईम मेरे कमरे में दाख़िल हुआ और ख़ामोशी से कुर्सी पर बैठ गया। मैंने उसकी तरफ़ नज़र उठा कर देखा और अख़बार की आख़िरी कापी के लिए जो मज़मून लिख रहा था उसको जारी रखने ही वाला था कि मअ’न मुझे नईम के चेहरे पर एक ग़ैरमामूली तबदीली का एहसास हुआ। मैंने चश्मा उतार कर उसकी तरफ़ फिर देखा और कहा, “क्या बात है नईम, मालूम होता है तुम्हारी तबीयत नासाज़ है।”
नईम ने अपने ख़ुश्क लबों पर ज़बान फेरी और जवाब दिया, “क्या बताऊं, अ’जीब मुश्किल में जान फंस गई है। बैठे बिठाए एक ऐसी बात हुई है कि मैं किसी को मुँह दिखाने के क़ाबिल नहीं रहा।”

मैंने काग़ज़ की जितनी पर्चियां लिखी थीं जमा करके एक तरफ़ रख दीं और ज़्यादा दिलचस्पी लेकर उससे पूछा, “कोई हादिसा पेश आ गया... फ़िल्म कंपनी में किसी एक्ट्रेस से।”
नईम ने फ़ौरन ही कहा, “नहीं भाई, एक्ट्रेस-वेक्ट्रेस से कुछ भी नहीं हुआ। एक और ही मुसीबत में जान फंस गई है। तुम्हें फ़ुर्सत हो तो मैं सारी दास्तान सुनाऊं।” [...]

वकालत

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मंज़ूर है गुज़ारिश-ए-अहवाल-ए-वाक़ई
अपना बयान हुस्न-ए-तबीयत नहीं मुझे

वकालत भी क्या ही उम्दा... आज़ाद पेशा है। क्यों? सुनिए में बताता हूँ।
(1) [...]

कफ़न

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(1)
झोंपड़े के दरवाज़े पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने ख़ामोश बैठे हुए थे और अन्दर बेटे की नौजवान बीवी बुधिया दर्द-ए-ज़ेह से पछाड़ें खा रही थी और रह-रह कर उसके मुँह से ऐसी दिल-ख़राश सदा निकलती थी कि दोनों कलेजा थाम लेते थे।

जाड़ों की रात थी, फ़ज़ा सन्नाटे में ग़र्क़, सारा गाँव तारीकी में जज़्ब हो गया था।
घीसू ने कहा, “मालूम होता है बचेगी नहीं। सारा दिन तड़पते हो गया, जा देख तो आ।” [...]

नफ़रत

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अजीब वाक़ियात तो दुनिया में होते ही रहते हैं मगर एक मामूली सा वाक़िया नाज़ली की तबीअत को यक-लख़्त क़तई तौर पर बदल दे, ये मेरे लिए बेहद हैरान-कुन बात है। उसकी ये तब्दीली मेरे लिए मुअम्मा है। चूँकि इस वाक़ये से पहले मुझे यक़ीन था कि उसकी तबीअत को बदलना क़तई ना-मुमकिन है। इ लिए अब मैं ये महसूस कर रही हूँ कि नाज़ली वो नाज़ली ही नहीं रही जो बचपन से अब तक मेरी सहेली थी। जैसे उसकी इस तब्दीली में इन्सान की रूह की हक़ीक़त का भेद छुपा है। तअज्जुब की बात तो ये है कि वो एक बहुत ही मामूली वाक़िया था यानी किसी भद्दे से बदनुमा आदमी से ख़ुदा वास्ते का बुग़्ज़ महसूस करना... कितनी आम सी बात है।
सहेली के अलावा वो मेरी भाबी थी। क्यूँकि उसकी शादी भाई मुज़फ़्फ़र से हो चुकी थी। इस बात को तक़रीबन दो साल गुज़र चुके थे। मुज़फ़्फ़र मेरे मामूँ ज़ाद भाई हैं और जालंधर में वकालत करते हैं।

ये वाक़या लाहौर स्टेशन पर हुआ। उस रोज़ मैं और नाज़ली दोनों लायलपुर से जालंधर को आ रही थीं।
एक छोटे से दर्मियाने दर्जे के डिब्बे में हम दोनों अकेली बैठी थीं। नाज़ली पर्दे की सख़्त मुख़ालिफ़ थी। बुर्क़े का बोझ उठाना उससे दूभर हो जाता था। इसलिए गाड़ी में दाख़िल होते ही उसने बुर्क़ा उतार कर लपेटा और सीट पर रख दिया। उस रोज़ उसने ज़र्द रंग की रेशमी साड़ी पहनी हुई थी जिसमें तिलाई हाशिया था। ज़र्द रंग उसे बहुत पसंद था और उसके गोरे गोरे जिस्म में गुलाबी झलक पैदा कर देता था। [...]

शातिर की बीवी

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(1)
उम्दा किस्म का सियाह-रंग का चमकदार जूता पहन कर घर से बाहर निकलने का असल लुतफ़ तो जनाब जब है जब मुँह में पान भी हो, तंबाकू के मज़े लेते हुए जूते पर नज़र डालते हुए बेद हिलाते जा रहे हैं। यही सोच कर में जल्दी-जल्दी चलते घर से दौड़ा। जल्दी में पान भी ख़ुद बनाया। अब देखता हूँ तो छालीया नदारद। मैंने ख़ानम को आवाज़ दी कि छालीया लाना और उन्होंने उस्तानी जी को पुकारा। उस्तानी जी वापिस मुझे पुकारा कि वो सामने ताक़ में रखी है। मैं दौड़ा हुआ पहुंचा। एक रकाबी में कटी और बे कटी यानी साबित छालीया रखी हुई थी। सरौता भी रखा हुआ था और सुबे से ताज्जुब की बात ये कि शतरंज का एक रख़स भी छालीया के साथ कटा रखा था। इस के तीन टुकड़े थे। एक तो आधा और दो पाओ पाओ। साफ़ ज़ाहिर है कि छालीया के धोके में कतरा गया है, मगर यहां किधर से आया। ग़ुस्सा और रंज तो गुमशुदगी का वैसे ही था। अब रुख की हालत-ए-ज़ार जो देखी तो मेरा वही हाल हुआ जो अली-बाबा का क़ासिम की लाश को देखकर हुआ था। ख़ानम के सामने जा कर रकाबी जूं की तूं रख दी। ख़ानम ने भवें चढ़ा कर देखा और यक-दम उनके ख़ूबसूरत चेहरे पर ताज्जु-बख़ेज़ मुस्कुराहट सी आकर रख गई और उन्होंने मस्नूई ताज्जुब से उस्तानी जी की तरफ़ रकाबी करते हुए देखा। उस्तानी जी एक दम से भवें चढ़ा कर दाँतों तले ज़बान दाब के आँखें फाड़ दें, फिर संजीदा हो कर बोलीं,

जब ही तो मैं कहूं या अल्लाह इतनी मज़बूत और सख़्त छालीया कहाँ से आ गई। कल रात अंधेरे में कट गया। जब से रकाबी जूं की तूं वहीं रखी है।
अजी ये यहां आया कैसे ? मैंने तेज़ हो कर कहा। [...]

क़ुर्बानी का जानवर

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ज़फ़र भौंचक्का बैठा था। आयशा ने ​िसवय्यों का प्याला हाथ में देते हुए पूछा, ‘‘फिर क्या कहा मैडम ने?’’
‘‘कहा कि लड़का 14-13 साल का हो। किसी अच्छे घर का हो, घरेलू काम-काज का थोड़ा-बहुत तजुर्बा हो। आँख न मिलाता हो। साफ़-सुथरा रहता हो, तनख़्वाह ज़ियादा न माँगे। नाग़ा न करे। महीने पीछे पगार और रोज़ाना तीन वक़्त का खाना भी तो मिलेगा।’’

‘‘फिर?’’
‘‘फिर क्या?’’ [...]

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