दो चोर एक घर में घुसे। आधी रात का वक़्त था। घर में मिट्टी के तेल का दिया जल रहा था। वो घर एक बूढ़िया का था जिसका इस दुनिया में कोई भी अज़ीज़ रिश्तेदार नहीं था। वो अकेली थी और कमाने के क़ाबिल भी नहीं थी। महल्ले के लोग सुब्ह शाम उस को खाना दे जाया करते थे। वो इस में से खाती और ख़ुदा का शुक्र अदा करके इबादत में मसरूफ़ हो जाती। इस दिन भी वो इशा की नमाज़ पढ़ने के बाद काफ़ी देर तक अल्लाह अल्लाह करने के बाद सोई थी कि घर में दो चोर घुस आए। एक चोर का पैर बूढ़िया की चारपाई से जो टकराया तो इस की आँख खुल गई। उसने दोनों चोरों को देख लिया लेकिन बेफ़िक्र हो कर लेटी रही। उसे फ़िक्र होता भी क्यों, घर में था ही क्या जिसके चोरी चले जाने का डर होता। दिल ही दिल में हसंती रही और चोरों को देखती रही। जो इधर उधर नक़दी या ज़ेवर तलाश करते फिर रहे थे। आख़िर जब चोर तलाश करते करते थक गए और मायूस हो कर लौटने लगे तो बूढ़िया बोल उठी। ‘‘क्यों कुछ नहीं मिला’’
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