बिल्लियों की कॉन्फ्रेंस

Shayari By

घर के कबाड़ ख़ाने में बिल्लियों की कान्फ़्रैंस हो रही थी। तमाम बिल्लियां इस तरह एक गोल दायरे में बैठी थीं जैसे किसी गोल मेज़ कान्फ़्रैंस में शिरकत कर रही हूँ। बैठने से पहले उन सबने अपनी अपनी दुम से अपनी जगह भी साफ़ की थी। लक्कड़ी की एक टूटी कुर्सी पर उस वक़्त एक बूढ़ी बिल्ली बैठी थी। ये बी हज्जन थी। तमाम बिल्लियां उसे इसी नाम से पुकारती थीं क्योंकि उसके मुतअल्लिक़ मशहूर था कि नौ सौ चूहे खाने के बाद हज को गई थी।
अचानक उसने अपना बाज़ू उठा कर मुक्के की शक्ल में लहराया और बुलंद आवाज़ में बोली ‘‘ये तो तुम सबको मालूम ही है कि हम यहाँ किस लिए जमा हुए हैं। इस घर के रहने वाले अब हम पर ज़ुल्म करने लगे हैं किसी की दुम पर पाँव रख देते हैं तो किसी पर लकड़ी या पत्थर उठा मारते हैं। एक ज़माना था जब इस घर पर चूहों की हुकूमत थी। हर तरफ़ चूहे ही चूहे थे। बावर्चीख़ाने के हर कोने में चूहे, घर की अलमारियों में चूहे, खाने पीने की चीज़ों में चूहे। यहाँ तक कि सोते वक़्त उन लोगों के बिस्तरों में घुस कर चूहे लिहाफ़ों के मज़े भी लिया करते थे। आख़िर जब घर वाले बिलकुल ही तंग आगए तो उन्होंने एक बिल्ली पालने की सोची। इस काम पर मुन्ने मियां को लगाया गया। मुन्ने मियां एक गली में से गुज़रे। उस गली में एक टूटा फूटा मकान था जिसमें मैं अपनी माँ के साथ रहती थी। मुन्ने मियां की नज़र मुझ पर पड़ी तो झट मुझे उठा लिया। मैं बहुत घबराई मगर क्या कर सकती थी। अभी बहुत छोटी थी ना पंजे मार सकती थी ना भाग सकती थी। मुन्ने मियां मुझे इस घर में ले आए और मैंने यहाँ चूहों का एक लश्कर-ए-अज़ीम देखा। इतनी बड़ी फ़ौज को देखकर मैं घबरा गई क्योंकि अभी तो मैं दूध पीती बची थी। मैं भला क्या चूहे खाती। फिर भी इतना हुआ कि मेरी आवाज़ सुनकर चूहे इधर से उधर भाग जाते और बिलों में से मुँह निकाल निकाल कर मुझे देखते रहते। रफ़्ता-रफ़्ता मैं बड़ी होती गई और चूहों का शिकार करने लगी। अब तो चूहे मुझसे ख़ूब डरने लगे। एक दिन क्या हुआ, मुझे देखकर बिल्ली के दो तीन बच्चे और इस घर में आकर रहने लगे। अब तो रोज़-ब-रोज़ हमारी तादाद बढ़ने लगी और चूहों की तादाद कम होने अब हम इस घर मैं ख़ूब उछल कूद मचाने लगे। हमारी तादाद बढ़ती ही चली गई। पहले-पहल तो घर के लोग ख़ुश होते रहे क्योंकि चूहे ग़ायब होते जा रहे थे और उनको हमारी वजह से बहुत सुकून हो गया था। जब हमारी तादाद बहुत ज़्यादा हो गई तो हमने रहने के लिए इस कबाड़ ख़ाने को चुन लिया। रात को यहां रहने लगे और दिन में सारे घर में उछलते कूदते फिरते। दिन यूंही गुज़रते रहे। हमारी तादाद बढ़ रही थी। आख़िर एक दिन हमने चूहों की फ़ौज का मुकम्मल तौर पर सफ़ाया कर दिया, अब घर में कोई चूहा बाक़ी ना बचा था।

जिस दिन इस घर का आख़िरी चूहा भी हमारी ख़ुराक बन गया तो हमने इस घर के उसी कमरे में जश्न मनाया इस जश्न में हमने अपने बच्चों की आपस में शादियां कर दीं उस दिन हमारी ख़ुशी का कोई ठिकाना ना रहा। फिर ऐसा कि हमारी तादाद और भी बढ़ गई और अब ये इज़ाफ़ा ही हमारे लिए मुसीबत बन गया है। घर वाले खाने की तमाम चीज़ें तालों में रखते हैं हमें कुछ खाने को नहीं देते। अगर कभी इत्तिफ़ाक़ से खाने की कोई चीज़ हम में से किसी के हाथ लग जाये तो उसे लकड़ियों से पीटा जाता है या दुम से पकड़ कर हवा में झुलाया जाता है। इन घर वालों के इस ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आज हम सब यहां इकट्ठे हुए हैं। पिछले दिनों हमने फ़ैसला किया था कि अगर ये लोग हमें खाने को कुछ नहीं देते तो ना सही हम ख़ुद खाने की चीज़ें हासिल करेंगे। इस फ़ैसले के बाद हम घर की चीज़ों पर टूट पड़े थे और ख़ूब जी भर कर चीज़ें खा ली थी, लेकिन नतीजा क्या निकला। किसी की टांग तोड़ दी गई तो किसी को बोरी में बंद कर के दरिया पार छोड़ दिया गया। मिस भूरी तुम खड़ी हो जाओ और सबको चल के दिखाओ'
एक भूरी बिल्ली उठ खड़ी हुई और उन सबको चल कर दिखाया। उसकी एक टांग टूटी हुई थी और वो बुरी तरह लंगड़ा रही थी। [...]

टिंकू

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राजमहल होटल शहर का सबसे बड़ा और आलीशान होटल था। उसके हर फ़र्श पर बड़े क़ीमती क़ालीन बिछे थे और छतों में ख़ुशनुमा फ़ानूस लटके हुए थे। मेज़ कुर्सियाँ और खाने पीने के बर्तन भी बड़े साफ़ सुथरे और आला दर्जे के थे। हर-रोज़ चार से पाँच बजे के दरमियान वहाँ शहर के बड़े अमीर लोग चाय पीने आते थे। क्योंकि ग़रीब लोग तो इस होटल में जा ही नहीं सकते थे। इस होटल के बड़े हाल में जहाँ बड़े लोग बैठ कर चाय पीते थे। ग़ुल मचाना मना था, और ना बदतमीज़ी की कोई बात करने की इजाज़त थी। क्योंकि बड़े लोग ना तो ग़ुल मचाने को अच्छा समझते थे और ना किसी क़िस्म की बदतमीज़ी को।
इस होटल में बहुत से बैरे मुलाज़िम थे जो अलग़ू के नीचे काम करते थे क्योंकि वो इन सबसे बड़ा बैरा था।

एक दिन जबकि होटल के बड़े हाल में बड़े लोग चाय पीने के लिए जमा थे। बैरे बड़ी जल्दी में इधर उधर आ जा रहे थे। मेहमानों से आर्डर ले रहे थे। चाय और उस के साथ खाने पीने की चीज़ें मेज़ों पर लगा रहे थे और अलग़ू एक तरफ़ देख रहा था कि कोई बैरा अपना काम सुस्ती से तो नहीं कर रहा। मगर वो सब अपना अपना काम ठीक ठीक कर रहे थे। अचानक एक तरफ़ से शोर सुनाई दिया और एक बुड़ी ही भोंडी आवाज़ आई।
’’ए बैरा क्या मेरे लिए चाय नहीं लाओगे?'' [...]

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