अन्न-दाता

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(1)
वो आदमी जिसके ज़मीर में कांटा है

(एक ग़ैर मुल्की कौंसिल के मकतूब जो उसने अपने अफ़्सर आला को कलकत्ता से रवाना किए)
8 अगस्त 1943 –कलाइव स्ट्रीट, मून शाईन ला। [...]

मौज दीन

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रात की तारीकी में सेंट्रल जेल के दो वार्डन बंदूक़ लिए चार क़ैदियों को दरिया की तरफ़ लिए जा रहे थे जिनके हाथ में कुदालें और बेलचे थे। पुल पर पहुंच कर उन्होंने गारद के सिपाही से डिबिया ले कर लालटेन जलाई और तेज़ तेज़ क़दम बढ़ाते दरिया की तरफ़ चल दिए।
किनारे पर पहुंच कर उन्होंने बारहदरी की बग़ल में कुदालें और बेलचे फेंके और लालटेन की मद्धम रौशनी में इस तरह तलाश शुरू की जैसे वो किसी मदफ़ून खज़ाने की खोज में आए हैं। एक क़ैदी ने लालटेन थामे वार्डन को दारोगा जी के नाम से मुख़ातिब करते हुए कहा, “दारोगा जी! ये जगह मुझे बहुत पसंद है अगर हुक्म हो तो खुदाई शुरू कर दें।”

“देखना ज़मीन नीचे से पथरीली न हो, वर्ना सारी रात खुदाई में गुज़र जाएगी। कमबख़्त को मरना भी रात ही को था।” वार्डन ने तहक्कुमाना और बेज़ारी के लहजे में कहा।
क़ैदियों ने कुदालें और बेलचे उठाए और खोदना शुरू किया। वार्डन बेज़ारी के मूड में बैठे सिगरेट पी रहे थे। क़ैदी ज़मीन खोदने में हमातन मसरूफ़ थे। रफ़्ता रफ़्ता ज़मीन पर ख़ुदी हुई मिट्टी का ढेर लग गया और वार्डन ने क़रीब आ कर क़ब्र का मुआ’इना किया। ज़मीन चूँकि पथरीली नहीं थी इसलिए वो बड़े इतमिनान के साथ क़रीब ही एक पत्थर पर बैठा सिगरेट पीने लगा जिसे लगाने के लिए उसने लालटेन मंगाई। [...]

बेगू

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तसल्लियां और दिलासे बेकार हैं। लोहे और सोने के ये मुरक्कब में छटांकों फांक चुका हूँ। कौन सी दवा है जो मेरे हलक़ से नहीं उतारी गई। मैं आपके अख़लाक़ का ममनून हूँ मगर डाक्टर साहब मेरी मौत यक़ीनी है। आप कैसे कह रहे हैं कि मैं दिक़ का मरीज़ नहीं। क्या मैं हर रोज़ ख़ून नहीं थूकता?
आप यही कहेंगे कि मेरे गले और दाँतों की ख़राबी का नतीजा है मगर मैं सब कुछ जानता हूँ। मेरे दोनों फेफड़े ख़ाना-ए-ज़ंबूर की तरह मुशब्बक हो चुके हैं। आपके इंजेक्शन मुझे दुबारा ज़िंदगी नहीं बख़्श सकते। देखिए, मैं इस वक़्त आपसे बातें कर रहा हूँ। मगर सीने पर एक वज़नी इंजन दौड़ता हुआ महसूस कर रहा हूँ। मालूम होता है कि मैं एक तारीक गढ़े में उतर रहा हूँ... क़ब्र भी तो एक तारीक गढ़ा है।

आप मेरी तरफ़ इस तरह न देखिए डाक्टर साहब, मुझे इस चीज़ का कामिल एहसास है कि आप अपने हस्पताल में किसी मरीज़ का मरना पसंद नहीं करते मगर जो चीज़ अटल है वो होके रहेगी। आप ऐसा कीजिए कि मुझे यहां से रुख़सत कर दीजिए। मेरी टांगों में तीन-चार मील चलने की क़ुव्वत अभी बाक़ी है। किसी क़रीब के गांव में चला जाऊंगा और... मगर मैं तो रो रहा हूँ। नहीं नहीं। डाक्टर साहब यक़ीन कीजिए। मैं मौत से ख़ाइफ़ नहीं। ये मेरे जज़्बात हैं, जो आँसूओं की शक्ल में बाहर निकल रहे हैं।
आह! आप क्या जानें। इस मदक़ूक़ के सीने से क्या कुछ बाहर निकलने को मचल रहा है। मैं अपने अंजाम से बाख़बर हूँ। आज से पाँच बरस पहले भी मैं इस वहशतनाक अंजाम से बाख़बर था। जानता था और अच्छी तरह जानता था कि कुछ अर्सा के बाद मेरी ज़िंदगी की दौड़ ख़त्म हो जाएगी। [...]

बाँझ

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मेरी और उसकी मुलाक़ात आज से ठीक दो बरस पहले अपोलोबंदर पर हुई। शाम का वक़्त था, सूरज की आख़िरी किरनें समुंदर की उन दराज़ लहरों के पीछे ग़ायब हो चुकी थी जो साहिल के बेंच पर बैठ कर देखने से मोटे कपड़े की तहें मालूम होती थीं। मैं गेट आफ़ इंडिया के उस तरफ़ पहला बेंच छोड़ कर जिस पर एक आदमी चम्पी वाले से अपने सर की मालिश करा रहा था, दूसरे बेंच पर बैठा था और हद्द-ए-नज़र तक फैले हुए समुंदर को देख रहा था।
दूर बहुत दूर जहां समुंदर और आसमान घुल मिल रहे थे। बड़ी बड़ी लहरें आहिस्ता आहिस्ता उठ रही थीं और ऐसा मालूम होता था कि बहुत बड़ा गदले रंग का क़ालीन है जिसे इधर से उधर समेटा जा रहा है।

साहिल के सब क़ुमक़ुमे रोशन थे जिनका अक्स किनारे के लर्ज़ां पानी पर कपकपाती हुई मोटी लकीरों की सूरत में जगह जगह रेंग रहा था। मेरे पास पथरीली दीवार के नीचे कई कश्तियों के लिपटे हुए बादबान और बांस हौले-हौले हरकत कर रहे थे। समुंदर की लहरें और तमाशाइयों की आवाज़ एक गुनगुनाहट बन कर फ़िज़ा में घुली हुई थी। कभी कभी किसी आने या जाने वाली मोटर के हॉर्न की आवाज़ बुलंद होती और यूं मालूम होता कि बड़ी दिलचस्प कहानी सुनने के दौरान में किसी ने ज़ोर से “हूँ” की है।
ऐसे माहौल में सिगरेट पीने का बहुत मज़ा आता है। मैंने जेब में हाथ डाल कर सिगरेट की डिबिया निकाली, मगर माचिस न मिली। जाने कहाँ भूल आया था। सिगरेट की डिबिया वापस जेब में रखने ही वाला था कि पास से किसी ने कहा, “माचिस लीजिएगा।” [...]

आम

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खज़ाने के तमाम कलर्क जानते थे कि मुंशी करीम बख़्श की रसाई बड़े साहब तक भी है। चुनांचे वो सब उसकी इज़्ज़त करते थे। हर महीने पेंशन के काग़ज़ भरने और रुपया लेने के लिए जब वो खज़ाने में आता तो उसका काम इसी वजह से जल्द जल्द कर दिया जाता था। पच्चास रुपये उसको अपनी तीस साला ख़िदमात के ए’वज़ हर महीने सरकार की तरफ़ से मिलते थे।
हर महीने दस दस के पाँच नोट वो अपने ख़फ़ीफ़ तौर पर काँपते हुए हाथों से पकड़ता और अपने पुराने वज़ा के लंबे कोट की अंदरूनी जेब में रख लेता। चश्मे में ख़ज़ानची की तरफ़ तशक्कुर भरी नज़रों से देखता और ये कह कर “अगर ज़िंदगी हुई तो अगले महीने फिर सलाम करने के लिए हाज़िर हूँगा,” बड़े साहब के कमरे की तरफ़ चला जाता।

आठ बरस से उसका यही दस्तूर था। खज़ाने के क़रीब क़रीब हर क्लर्क को मालूम था कि मुंशी करीम बख़्श जो मुतालिबात-ए-ख़ुफ़िया की कचहरी में कभी मुहाफ़िज़-ए-दफ़्तर हुआ करता था बेहद वज़ा’दार, शरीफ़ुत्तबा और हलीम आदमी है। मुंशी करीम बख़्श वाक़ई इन सिफ़ात का मालिक था। कचहरी में अपनी तवील मुलाज़मत के दौरान में आफ़सरान-ए-बाला ने हमेशा उसकी तारीफ़ की है। बा’ज़ मुंसिफ़ों को तो मुंशी करीम बख़्श से मोहब्बत हो गई थी। उसके ख़ुलूस का हर शख़्स क़ाइल था।
इस वक़्त मुंशी करीम बख़्श की उम्र पैंसठ से कुछ ऊपर थी। बुढ़ापे में आदमी उमूमन कमगो और हलीम हो जाता है मगर वो जवानी में भी ऐसी ही तबीयत का मालिक था। दूसरों की ख़िदमत करने का शौक़ इस उम्र में भी वैसे का वैसा ही क़ायम था। [...]

आख़िरी सल्यूट

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ये कश्मीर की लड़ाई भी अजीब-ओ-ग़रीब थी। सूबेदार रब नवाज़ का दिमाग़ ऐसी बंदूक़ बन गया था जिसका का घोड़ा ख़राब हो गया हो।
पिछली बड़ी जंग में वो कई महाज़ों पर लड़ चुका था। मारना और मरना जानता था। छोटे बड़े अफ़सरों की नज़रों में उसकी बड़ी तौक़ीर थी, इसलिए कि वो बड़ा बहादुर, निडर और समझदार सिपाही था। प्लाटून कमांडर मुश्किल काम हमेशा उसे ही सौंपते थे और वो उनसे ओहदा-बरा होता था। मगर इस लड़ाई का ढंग ही निराला था।

दिल में बड़ा वलवला, बड़ा जोश था। भूक-प्यास से बेपर्वा सिर्फ़ एक ही लगन थी, दुश्मन का सफ़ाया कर देने की, मगर जब उससे सामना होता, तो जानी-पहचानी सूरतें नज़र आतीं। बा'ज़ दोस्त दिखाई देते, बड़े बग़ली क़िस्म के दोस्त, जो पिछली लड़ाई में उसके दोश-बदोश, इत्तिहादियों के दुश्मनों से लड़े थे, पर अब जान के प्यासे बने हुए थे।
सूबेदार रब नवाज़ सोचता था कि ये सब ख़्वाब तो नहीं। पिछली बड़ी जंग का ऐलान। भर्ती, क़द-आवर छातियों की पैमाइश, पी टी, चांद मारी और फिर महाज़। उधर से इधर, इधर से उधर, आख़िर जंग का ख़ातमा। फिर एक दम पाकिस्तान का क़ियाम और साथ ही कश्मीर की लड़ाई। ऊपर-तले कितनी चीज़ें। रब नवाज़ सोचता था कि करने वाले ने ये सब कुछ सोच-समझ कर किया है ताकि दूसरे बौखला जाएं और समझ न सकें। वर्ना ये भी कोई बात थी कि इतनी जल्दी इतने बड़े इन्क़िलाब बरपा हो जाएं। [...]

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