वकालत

Shayari By

मंज़ूर है गुज़ारिश-ए-अहवाल-ए-वाक़ई
अपना बयान हुस्न-ए-तबीयत नहीं मुझे

वकालत भी क्या ही उम्दा... आज़ाद पेशा है। क्यों? सुनिए में बताता हूँ।
(1) [...]

परवाज़ के बाद

Shayari By

जैसे कहीं ख़्वाब में जिंजर राजर्ज़ या डायना डरबिन की आवाज़ में ‘सान फ्रेंडोवैली’ का नग़्मा गाया जा रहा हो और फिर एकदम से आँख खुल जाए, या’नी वो कुछ ऐसा सा था जैसे माईकल एंजलो ने एक तस्वीर को उकताकर यूँही छोड़ दिया होगा और ख़ुद किसी ज़्यादा दिलचस्प मॉडल की तरफ़ मुतवज्जेह हो गया हो, लेकिन फिर भी उसकी संजीदा सी हँसी कह रही थी कि भई मैं ऐसा हूँ कि दुनिया के सारे मुसव्विर और सारे संग-तराश अपनी पूरी कोशिश के बा-वजूद मुझ जैसा शाहकार नहीं बना सकते। चुपके-चुपके मुस्कुराए जाओ बे-वक़ूफ़ो! शायद तुम्हें बा’द में अफ़सोस करना पड़े।
ओ सीफ़ो... ओ साइकी... ओ हेलेन... ऐ हमारे नए रेफ्रीजरेटर...।

गर्मी ज़ियादा होती जा रही थी। पाम के पत्तों पर जो माली ने ऊपर से पानी गिराया था तो गर्द कहीं-कहीं से धुल गई थी और कहीं-कहीं उसी तरह बाक़ी थी। और भीगती हुई रात कोशिश कर रही थी कि कुछ रोमैंटिक सी बन जाए। वो बर्फ़ीली लड़की, जो हमेशा सफ़ेद ग़रारे और सफ़ेद दुपट्टे में अपने आपको सबसे बुलंद और अलग सा महसूस करवाने पर मजबूर करती थी, बहुत ख़ामोशी से हक्सले की एक बेहद लग़्व किताब ‘प्वाईंट काउंटर प्वाईंट’ पढ़े जा रही थी जिसके एक लफ़्ज़ का मतलब भी उसकी समझ में न ठुंस सका था।
वो लैम्प की सफ़ेद रौशनी में इतनी ज़र्द और ग़म-गीं नज़र आ रही थी जैसे उसके बरगंडी कुइटेक्स की सारी शीशियाँ फ़र्श पर गिर के टूट गई हों या उसके फ़ीडो को सख़्त ज़ुकाम हो गया हो... और लग रहा था जैसे एक छोटे से ग्लेशियर पर आफ़ताब की किरनें बिखर रही हैं। [...]

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