नजात

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(1)
दुखी चमार दरवाज़े पर झाड़ू लगा रहा था, और उसकी बीवी झरिया घर को लीप रही थी। दोनों अपने अपने काम से फ़राग़त पा चुके, तो चमारिन ने कहा,

“तो जा कर पण्डित बाबा से कह आओ। ऐसा न हो कहीं चले जाएँ।”
दुखी, “हाँ जाता हूँ, लेकिन ये तो सोच कि बैठेंगे किस चीज़ पर?” [...]

तस्वीर के दो रुख़

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तीसरे पहर के वक़्त बेगम इब्बन अंगनाई में पलंग पर बैठी छालिया कुतर रही थीं। सामने बावर्ची ख़ाना में मामा हंडिया बघार रही थी। जब ड्योढ़ी में किसी ने कुंडी खटखटाई तो बेगम इब्बन बोलीं, “अरी दिलचीन देखियो तो कौन खटखटा रहा है? इस शोर से तो नाक में दम आ गया।“ इतने में बाहर से आवाज़ आई, “मैं आ जाऊँ?“
“कौन है?“

“मैं हूँ, बशीर।”
“मियाँ बशीर आओ, मियाँ बहुत दिनों में आए हो। क्या रस्ता भूल गए?” [...]

रज़्ज़ो बाजी

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सीतापुर में तहसील सिधाली अपनी झीलों और शिकारियों के लिए मशहूर थी। अब झीलों में धान ‎बोया जाता है। बंदूक़ें बेच कर चक्कियाँ लगाई गई हैं, और लाइसेंस पर मिले हुए कारतूस “ब्लैक” कर ‎के शेरवानियाँ बनाई जाती हैं। यहाँ छोटे-छोटे क़स्बों का ज़ंजीरा फैला हुआ था, जिनमें शुयूख़ आबाद ‎थे जो अपने मफ़रूर माज़ी की याद में नामों के आगे ख़ान लगाते थे और हर क़िस्म के शिकार के ‎लिए गुंडे, कुत्ते और शिकरे पालते थे।
उनमें सारनपुर के बड़े भैया रखू चचा और छोटे भैया पाचू चचा बहुत मुमताज़ थे। मैंने रखू चचा का ‎बुढ़ापा देखा है। उनके सफ़ेद अबरुओं के नीचे टर्नती आँखों से चिनगारियाँ और आवाज़ से लपटें ‎निकलती थीं। रज़्ज़ो बाजी उन्ही रखू चचा की इकलौती बेटी थीं। मैंने लड़कपन में रज़्ज़ो बाजी के ‎हुस्न और उस जहेज़ के अफ़साने सुने थे, जिसे उनकी दो सौतेली साहिब-ए-जायदाद माएँ जोड़-जोड़ ‎कर मर गई थीं। शादी-ब्याह की महफ़िलों में मीरासनें इतने लक़लक़े से उनका ज़िक्र करतीं कि टेढ़े ‎बेनचे लोग भी उनकी ड्योढ़ी पर मंडलाने लगते।

जब रज़्ज़ो बाजी की माँ मर गईं और रखू चचा पर फ़ालिज गिरा तो उन्होंने मजबूर हो कर एक ‎रिश्ता क़ुबूल कर लिया। मगर रज़्ज़ो बाजी पर ऐ’न-मंगनी के दिन जिन्नात आ गए और रज़्ज़ो बाजी ‎की ड्योढ़ी से रिश्ते के 'कागा' हमेशा के लिए उड़ गए। जब रखू चचा मर गए तो पाचू चचा उनके ‎साथ तमाम हिंदोस्तान की दरगाहों का पैकरमा करते रहे लेकिन जिन्नातों को न जाना था, न गए। ‎फिर रज़्ज़ो बाजी की उ'म्र ऐसा पैमाना बन गई, जिसके क़रीब पहुँचने के ख़ौफ़ से सूखी हुई कुँवारियाँ ‎लरज़ उठतीं।
जब भी रज़्ज़ो बाजी का ज़िक्र होता, मेरे वुजूद में एक टूटा हुआ काँटा खटकने लगता और मैं अपने ‎यादों के कारवाँ को किसी फ़र्ज़ी मसरूफ़ियत के सहरा में धकेल देता। रज़्ज़ो बाजी का जब रजिस्ट्री ‎लिफ़ाफ़ा मुझे मिला तो मैं ऐसा बद-हवास हुआ कि ख़त फाड़ दिया। लिखा था कि वो हज करने जा ‎रही हैं और मैं फ़ौरन सारंगपुर पहुँच जाऊँ, लेकिन इस तरह कि गोया मैं उनसे नहीं पाचू चचा से ‎मिलने आया हूँ, और ये भी कि मैं ख़त पढ़ने के बा'द फ़ौरन जला दूँ। मैंने रज़्ज़ो बाजी के एक हुक्म ‎की फ़ौरी तामील कर दी। ख़त के शोलों के उस पार एक दिन चमक रहा था। पंद्रह साल पहले का ‎एक दिन जब मैं बी.ए. में पढ़ता था और मुहर्रम करने घर आया हुआ था। [...]

पीतल का घंटा

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आठवीं मर्तबा हम सब मुसाफ़िरों ने लारी को धक्का दिया और ढकेलते हुए ख़ासी दूर तक चले गए। लेकिन इंजन गुनगुनाया तक नहीं। डराइवर गर्दन हिलाता हुआ उतर पड़ा। कंडक्टर सड़क के किनारे एक दरख़्त की जड़ पर बैठ कर बैट्री सुलगाने लगा। मुसाफ़िरों की नज़रें गालियां देने लगीं और होंट बड़बड़ाने लगे। मैं भी सड़क के किनारे सोचते हुए दूसरे पेड़ की जड़ पर बैठ कर सिगरेट बनाने लगा। एक-बार निगाह उठी तो सामने दूर दरख़्तों की चोटियों पर मस्जिद के मीनार खड़े थे। मैं अभी सिगरेट सुलगा ही रहा था कि एक मज़बूत खुरदुरे देहाती हाथ ने मेरी चुटकियों से आधी जली हुई तीली निकाल ली। मैं उसकी बे-तकल्लुफ़ी पर नागवारी के साथ चौंक पड़ा। मगर वो इत्मिनान से अपनी बीड़ी जला रहा था वो मेरे पास ही बैठ कर बेड़ी पीने लगा या बीड़ी खाने लगा।
“ये कौन गांव है?” मैंने मीनारों की तरफ़ इशारा कर के पूछा।

“यो... यो भुसवल है।”
भुसवल का नाम सुनते ही मुझे अपनी शादी याद आ गई। मैं अंदर सलाम करने जा रहा था कि एक बुज़ुर्ग ने टोक कर रोक दिया। वो क्लासिकी काट की बानात की अचकन और चौड़े पायंचे का पाजामा और फ़र की टोपी दिये मेरे सामने खड़े थे। मैंने सर उठाकर उनकी सफ़ेद पूरी मूँछें और हुकूमत से सींची हुई आँखें देखीँ। उन्होंने सामने खड़े हुए ख़िदमतगार के हाथ से फूलों की बद्धियाँ ले लीं और मुझे पहनाने लगे। मैंने बल खा कर अपनी बारसी पोत की झिलमिलाती हुई शेरवानी की तरफ़ इशारा करके तल्ख़ी से कहा, “क्या ये काफ़ी नहीं थी?” वो मेरी बात पी गए। बद्धियाँ बराबर कीं फिर मेरे नन्हे सर पर हाथ फेरा और मुस्कुरा कर कहा अब तशरीफ़ ले जाइए। मैंने डयोढ़ी पर किसी से पूछा कि “ये कौन बुज़ुर्ग थे।” बताया गया कि ये भुसवल के क़ाज़ी इनाम हुसैन हैं। [...]

दीवाली

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पूरब का तमाम आसमान गुलाबी रौशनी में जगमगा रहा था जैसे दीवाली के चराग़ों की सैकड़ों चादरें एक साथ लहलहा रही हों। उसने अलसा कर चटाई से अपने आपको उठाया। पतले मटियाले तकिए के नीचे से बुझी हुई बीड़ी निकाली और पास ही रखी हुई मिट्टी की नियाई में दबी उपले की आग सुलगाई। जल्दी-जल्दी दो दम लगाये। जैसे ही वो चिड़चिड़ा कर भड़की उसने मुँह से थूक दी और दूर से आती हुई आवाज़ को ग़ौर से सुनने की कोशिश की जैसे रात में चौकीदार क़दमों की चाप समझने की कोशिश करता है। अब वो मालिक की आवाज़ में ग़ुस्से से भुने हुए लफ़्ज़ों के पटाख़े सुनने लगा।
मेकुवा!

अबे मेकुवा के बच्चे!
क्या सांप सूँघ गया? [...]

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