जुवारी

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पुलिस ने ऐसी होशियारी से छापा मारा था कि उनमें से एक भी बच कर नहीं निकल सका था और फिर जाता तो कहाँ, बैठक का एक ही ज़ीना था जिस पर पुलिस के सिपाहियों ने पहले ही क़ब्ज़ा जमा लिया था। रही खिड़की, अगर कोई मनचला जान की परवाना कर के उसमें से कूद भी पड़ता तो अव्वल तो उसके घुटने ही सलामत न रहते और बिल-फ़र्ज़ ज़्यादा चोट न आती तो भी उसे भागने का मौक़ा न मिलता क्योंकि पुलिस के निस्फ़-दर्जन सिपाही नीचे बाज़ार में बैठक को घेरे हुए थे और यूँ वो सब के सब जुवारी, जिनकी तादाद दस थी पकड़ लिए गए थे।
इत्तिफ़ाक़ से उस दिन जो जुवारी इस बैठक में आए थे उनमें दो एक पेशावरों को छोड़ कर बाक़ी सब कभी-कभार के शौक़िया खेलने वाले थे और यूँ भी इज़्ज़तदार और आसूदा हाल थे। एक ठेकादार था, एक सरकारी दफ़्तर का ओह्देदार, एक महाजन का बेटा था, एक लारी ड्राईवर था और एक शख़्स चमड़े का कारोबार करता था।

उनमें दो शख़्स ऐसे भी थे जो बे-गुनाह पकड़ लिए गए थे। उनमें एक तो मनसुख पनवाड़ी था। हर-चंद वो भी कभी खेल भी लिया करता था मगर उस शाम वो क़तअन इस मक़सद से वहाँ नहीं गया। वो दुकान पर एक दोस्त को बिठा कर दस के नोट की रेज़गारी लेने आया था। रेज़गारी ले चुका तो चलते एक खिलाड़ी के पत्तों पर नज़र पड़ गई , पत्ते ग़ैर-मामूली तौर पर अच्छे थे। ये देखने को कि वो खिलाड़ी क्या चाल चलता है ये ज़रा की ज़रा रुका था कि इतने में पुलिस आ गई। बस फिर कहाँ जा सकता था!
दूसरा शख़्स एक उम्र रसीदा वसीक़ा नवीस था जो ठेकादार को ढूँढता ढूँढता इस बैठक में पहुँच गया था। ठेकादार से उस की पुरानी साहिब सलामत थी और वो चाहता था कि ठेकादार उसके बेटे को भी छोटा मोटा ठेके का काम दिला दिया करे। वो कई दिन से ठेकेदार की तलाश में सरगर्दां था और आख़िर मिला भी तो कहाँ, जहाँ न तो ठेकादार को खेल से फ़ुर्सत और न उसे इतने आदमियों के सामने मतलब की बात कहने का यारा। ठेकेदार खेल में मुनहमिक था और वसीक़ा नवीस इस सोच में कि वो कौन सी तर्कीब हो सकती है जिससे ये खेल घड़ी-भर के लिए थम जाए और दूसरे सब लोग उठ कर बाहर चले जाएँ। मगर इस क़िस्म की कोई सूरत उसे नज़र न आती थी। उधर ठेकेदार था कि घंटों से बराबर खेले जा रहा था। आख़िर वसीक़ा नवीस मायूस हो कर चलने की सोच ही रहा था कि इतने में पुलिस आ गई और जुवारीयों के साथ उसे भी धर लिया गया। [...]

गिलगित ख़ान

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शहबाज़ ख़ान ने एक दिन अपने मुलाज़िम जहांगीर को जो उसके होटल में अंदर-बाहर का काम करता था उसकी सुस्त-रवी से तंग आकर बरतरफ़ कर दिया। असल में वो सुस्त-रौ नहीं था। इस क़दर तेज़ था कि उसकी हर हरकत शहबाज़ ख़ान को ग़ैर मुतहर्रिक मालूम होती थी।
शहबाज़ ख़ान ने उसको महीने की तनख़्वाह दी। जहांगीर ने उसको सलाम किया और टिकट कटा कर सीधा बलोचिस्तान चला गया जहां कोयले की कांनें निकल रही थीं। उसके और कई दोस्त वहीं चले गए थे। लेकिन उसने गिलगित अपने भाई हमज़ा ख़ान को ख़त लिखा कि वो शहबाज़ ख़ान के यहां मुलाज़मत कर ले क्योंकि उसे अपना ये आक़ा पसंद था।

एक दिन हमज़ा ख़ान, शहबाज़ ख़ान के होटल में आया और एक कार्ड दिखा कर उसने कहा, खू अम मुलाज़मत चाहता है... अमारे भाई ने लिखा है, तुम अच्छा और नेक आदमी है... खू अम भी अच्छा और नेक है... तुम कितना पैसा देगा?”
शहबाज़ ख़ान ने हमज़ा ख़ान की तरफ़ देखा। वो जहांगीर का भाई किसी लिहाज़ से भी दिखाई नहीं देता था। नाटा सा क़द, नाक चौड़ी चपटी। निहायत बदशक्ल। शहबाज़ ख़ान ने उसे एक नज़र देख कर और जहांगीर का ख़त पढ़ कर सोचा कि इसको निकाल बाहर करे। मगर आदमी नेक था, उसने किसी साइल को ख़ाली नहीं जाने दिया था। [...]

आम

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खज़ाने के तमाम कलर्क जानते थे कि मुंशी करीम बख़्श की रसाई बड़े साहब तक भी है। चुनांचे वो सब उसकी इज़्ज़त करते थे। हर महीने पेंशन के काग़ज़ भरने और रुपया लेने के लिए जब वो खज़ाने में आता तो उसका काम इसी वजह से जल्द जल्द कर दिया जाता था। पच्चास रुपये उसको अपनी तीस साला ख़िदमात के ए’वज़ हर महीने सरकार की तरफ़ से मिलते थे।
हर महीने दस दस के पाँच नोट वो अपने ख़फ़ीफ़ तौर पर काँपते हुए हाथों से पकड़ता और अपने पुराने वज़ा के लंबे कोट की अंदरूनी जेब में रख लेता। चश्मे में ख़ज़ानची की तरफ़ तशक्कुर भरी नज़रों से देखता और ये कह कर “अगर ज़िंदगी हुई तो अगले महीने फिर सलाम करने के लिए हाज़िर हूँगा,” बड़े साहब के कमरे की तरफ़ चला जाता।

आठ बरस से उसका यही दस्तूर था। खज़ाने के क़रीब क़रीब हर क्लर्क को मालूम था कि मुंशी करीम बख़्श जो मुतालिबात-ए-ख़ुफ़िया की कचहरी में कभी मुहाफ़िज़-ए-दफ़्तर हुआ करता था बेहद वज़ा’दार, शरीफ़ुत्तबा और हलीम आदमी है। मुंशी करीम बख़्श वाक़ई इन सिफ़ात का मालिक था। कचहरी में अपनी तवील मुलाज़मत के दौरान में आफ़सरान-ए-बाला ने हमेशा उसकी तारीफ़ की है। बा’ज़ मुंसिफ़ों को तो मुंशी करीम बख़्श से मोहब्बत हो गई थी। उसके ख़ुलूस का हर शख़्स क़ाइल था।
इस वक़्त मुंशी करीम बख़्श की उम्र पैंसठ से कुछ ऊपर थी। बुढ़ापे में आदमी उमूमन कमगो और हलीम हो जाता है मगर वो जवानी में भी ऐसी ही तबीयत का मालिक था। दूसरों की ख़िदमत करने का शौक़ इस उम्र में भी वैसे का वैसा ही क़ायम था। [...]

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