अन्न-दाता

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(1)
वो आदमी जिसके ज़मीर में कांटा है

(एक ग़ैर मुल्की कौंसिल के मकतूब जो उसने अपने अफ़्सर आला को कलकत्ता से रवाना किए)
8 अगस्त 1943 –कलाइव स्ट्रीट, मून शाईन ला। [...]

परवाज़ के बाद

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जैसे कहीं ख़्वाब में जिंजर राजर्ज़ या डायना डरबिन की आवाज़ में ‘सान फ्रेंडोवैली’ का नग़्मा गाया जा रहा हो और फिर एकदम से आँख खुल जाए, या’नी वो कुछ ऐसा सा था जैसे माईकल एंजलो ने एक तस्वीर को उकताकर यूँही छोड़ दिया होगा और ख़ुद किसी ज़्यादा दिलचस्प मॉडल की तरफ़ मुतवज्जेह हो गया हो, लेकिन फिर भी उसकी संजीदा सी हँसी कह रही थी कि भई मैं ऐसा हूँ कि दुनिया के सारे मुसव्विर और सारे संग-तराश अपनी पूरी कोशिश के बा-वजूद मुझ जैसा शाहकार नहीं बना सकते। चुपके-चुपके मुस्कुराए जाओ बे-वक़ूफ़ो! शायद तुम्हें बा’द में अफ़सोस करना पड़े।
ओ सीफ़ो... ओ साइकी... ओ हेलेन... ऐ हमारे नए रेफ्रीजरेटर...।

गर्मी ज़ियादा होती जा रही थी। पाम के पत्तों पर जो माली ने ऊपर से पानी गिराया था तो गर्द कहीं-कहीं से धुल गई थी और कहीं-कहीं उसी तरह बाक़ी थी। और भीगती हुई रात कोशिश कर रही थी कि कुछ रोमैंटिक सी बन जाए। वो बर्फ़ीली लड़की, जो हमेशा सफ़ेद ग़रारे और सफ़ेद दुपट्टे में अपने आपको सबसे बुलंद और अलग सा महसूस करवाने पर मजबूर करती थी, बहुत ख़ामोशी से हक्सले की एक बेहद लग़्व किताब ‘प्वाईंट काउंटर प्वाईंट’ पढ़े जा रही थी जिसके एक लफ़्ज़ का मतलब भी उसकी समझ में न ठुंस सका था।
वो लैम्प की सफ़ेद रौशनी में इतनी ज़र्द और ग़म-गीं नज़र आ रही थी जैसे उसके बरगंडी कुइटेक्स की सारी शीशियाँ फ़र्श पर गिर के टूट गई हों या उसके फ़ीडो को सख़्त ज़ुकाम हो गया हो... और लग रहा था जैसे एक छोटे से ग्लेशियर पर आफ़ताब की किरनें बिखर रही हैं। [...]

नवमी

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वो अजीब थी। जिस्म देखिए तो एक लड़की सी मालूम होती, चेहरे पर नज़र डालिये तो बिल्कुल बच्ची सी दिखाई देती और अगर आँखों में उतर जाइये तो सारी समूची औरत अंगड़ाइयाँ लेती मिलती। वो सुर्ख़ ऊँचा सा फ़्रॉक और सियाह सलेक्स पहने जगमगा रही थी और सियाह घुँघराले बालों को झटक-झटक कर जीप में अपने सामान का शुमार कर रही थी और मेरे सामने एक दोपहर खिली पड़ी थी। उसने आँगन में क़दम रखते ही अपनी मम्मी से भैया के लिए पूछा था। ऊँचे बग़ैर आस्तीन के ब्लाउज़ और नीची छपी हुई साड़ी में कसी बंधी आँटी ने, जिन्हें अभी अपने बदन पर नाज़ था चमक कर भैया को मुख़ातिब किया, नवमी पूछ रही है कि तुम कौन हो?
भैया ने उदास चेहरे पर सलीक़े से रखी हुई रंजूर आँखें चश्मे के अंदर घुमाईं। रूखे सूखे बालों पर दुबला पतला गंदुमी सा हाथ फेरा। अंकल ने बड़े से बैग को तख़्त पर पटका। पीक थूकने के लिए उगलदान पर झुके और भैया भारी आवाज़ में बोले। भैया की आवाज़ उनकी शख़्सियत को और मुनफ़रिद बना देती है। ग़म में बसी हुई खोजदार आवाज़ से हल्का-हल्का धुआँ सा उठता रहता है और जिसे सुन कर अजनबियत एहसास-ए-कमतरी बन जाती है और ख़्वाह-मख़ाह मुतआरिफ़ होने को जी चाहता है, बहुत छोटी सी थी जब देखा था उसने।

और नवमी को इस तरह देखा जैसे कैलेंडर को देख रहे हों। जवाब इस तरह दिया जैसे आँटी से कह रहे हों उसे बुक्स में रख लीजिए वरना ख़राब हो जाएगा देहात में, और नवमी बेचारी भैया की आवाज़ में शराबोर खड़ी थी। उसकी नज़रें भैया के चेहरे में पैवस्त हो चुकी थीं। अंकल पक्का गाना गाने वालों की तरह खंकार कर बोले, बेटी... मैंने तुम्हें बताया था कि वहाँ गाँव में जहाँ तुम शादी में जा रही हो तुम्हारे एक कज़िन हैं जो बहुत सी किताबों के ऑथर हैं... वही तो हैं ये।
भाबी जो ननद की शादी में भैया से ज़्यादा अपना आपा खोए बैठी थीं एक तरफ़ से बड़बड़ाती निकलीं और भैया को लिए दूसरी तरफ़ चली गईं और भैया ने बे ख़्याली में भी, नवमी की निगाहें भी अपने साथ ही लिए चले गए। और वो बेचारी ख़ाली-ख़ाली आँखें लिए गुम सुम खड़ी रही, जल्दी कीजिए ... पानी लदा खड़ा है। फाटक से किसी ने हाँक लगाई। मैंने आसमान की तरफ़ देखा। सारे में सियाह जामुनी बादल छाए हुए थे और अंधेरा फैला हुआ था जैसे सूरज की बिजली फ़ेल हो गई हो। उस दिन भी ऐसा ही दिल मसोस डालने वाला मौसम था। [...]

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