आँ से ज़ालिम का इम्तिहाँ और मैं ये सितम तेरे आसमाँ और मैं कभी कहता हूँ अब वो आते हैं कभी कहता हूँ वो कहाँ और मैं बे-क़रारी दिला रही है याद हाए वो तेरी शोख़ियाँ और मैं नहीं सुनता कोई किसी की जहाँ ग़म-ए-हिज्राँ की दास्ताँ और मैं आख़िर आ ही गई फ़ुग़ाँ लब पर ज़ब्त-ए-राज़-ए-ग़म-ए-निहाँ और मैं चर्ख़ भूला हुआ है क्या गर्दिश यार के घर में मेहमाँ और मैं कुछ कहे जाओ कुछ सुने जाओ तुम से दो-चार बद-गुमाँ और मैं वो गली और रात-भर फिरना दूर-बाश-ए-निगह याँ और मैं फ़िक्र-ए-दुश्वारी-ए-मतालिब में एक बेचारा राज़दाँ और मैं आइने वर्ना देख लीजिएगा हर जगह आप का बयाँ और मैं पूछ 'सालिक' न मेरा घर मुझ से रात-दिन है दर-ए-बुताँ और मैं