आबरू क्या पैरहन जब बे-गरेबाँ रह गया बारे आँसू पुछ गए मेरे कि दामाँ रह गया हैं यहीं के ये भी फिर आ'माल क्यों जाते हैं साथ जो किया था हम ने याँ पैदा वो सब याँ रह गया आदमी पर राज़-ए-हुस्न-ए-बे-निशाँ क्यों कर खुले जिस क़दर ज़ाहिर हुआ उतना ही पिन्हाँ हो गया खाएँ क्यों ग़म गर नहीं बाक़ी निशान-ए-जू-ए-शीर क्या वो शीरीं रह गई उस का शबिस्ताँ रह गया कल हम उन से मिल के कह आए हैं अपना दर्द-ए-दिल फिर भी 'नाज़िम' शिकवा-ए-बेदाद-ए-दरबाँ रह गया