आदमिय्यत की कमी आज जिस इंसान में है वो न हिन्दू में है शामिल न मुसलमान में है ज़िंदगानी का उमँडता हुआ ये सैल-ए-रवाँ जो सफ़ीना है तलातुम में है तूफ़ान में है इस ज़माने के मसाइल का सुलझना मालूम ज़ीस्त उलझी हुई ख़ुद अपने गरेबान में है अम्न-ओ-तहज़ीब पे है मौत का आलम तारी देखिए जिस को वही जंग के मैदान में है हरम-ओ-दैर की तस्वीर-ए-मुजस्सम हूँ मैं कुफ़्र का रंग भी शामिल मिरे ईमान में है इस हक़ीक़त का नहीं सारे ज़माने में जवाब जो हक़ीक़त मिरे अफ़्साने के उन्वान में है जो भी पढ़ता है वही दाद-ए-सुख़न देता है कोई तासीर तो 'जौहर' तिरे दीवान में है