तुम्हारे बिन हमारा आशियाँ कैसा लगेगा बिना पानी के कोई भी कुआँ कैसा लगेगा अगर वो छोड़ दे सारे गुमाँ कैसा लगेगा ज़मीं के साथ चलता आसमाँ कैसा लगेगा मुकम्मल करने में जिस को तुम्हारा ख़ूँ लगा हो उसी तस्वीर से उठता धुआँ कैसा लगेगा अकेले तुम अगर आए कभी इन जंगलों में तो पाओगे यहाँ मेरे निशाँ कैसा लगेगा परिंदों ने अगर पूछा उदासी का सबब तो सुनानी ही पड़ेगी दास्ताँ कैसा लगेगा ये ग़ालिब ने तो चाहा था मगर अपनी बताओ जहाँ कोई न हो तुम को वहाँ कैसा लगेगा