आदमी का है फ़साना ख़ाक से है अज़ल से दोस्ताना ख़ाक से आप के चेहरे पे रौनक़ है बहुत क्या कोई निकला ख़ज़ाना ख़ाक से मैं किसी का भी रहूँ मुहताज क्यों पा रहा हूँ आब-ओ-दाना ख़ाक से इक क़दम भी क्या उठे उस के बग़ैर चल रहा है ये ज़माना ख़ाक से ज़हर भर दे जो तुम्हारे ख़ून में मत उगाओ ऐसा दाना ख़ाक से जीना मरना है लहद की ख़ाक में मेरा रौशन आस्ताना ख़ाक से 'साहिर' आलम आश्कारा हो गया प्यार तेरा वालिहाना ख़ाक से