बरमला वो भी अगर हम को दग़ा देता है दिल-ए-बेताब उसे मुँह पे सुना देता है वो सितम-केश जब आज़ार नया देता है हम समझते हैं कि उल्फ़त का सिला देता है इश्क़ की आग तो है यूँ भी फ़ना का पैग़ाम दिल-ए-ना-फ़हम अबस इस को हवा देता है आज़मा लेता हूँ अहबाब को गाहे-गाहे वर्ना देने को तो हर चीज़ ख़ुदा देता है और कुछ भी हो मगर इस से तो इंकार नहीं इश्क़ इंसान को इंसान बना देता है मैं जो पीता हूँ बिला-नाग़ा शराब ऐ वाइ'ज़ क्यूँ तुझे चिड़ है अगर मुझ को ख़ुदा देता है रहबरी वो है कि आसूदा-ए-मंज़िल हो कोई वर्ना रस्ता तो हर इक शख़्स बता देता है अब न क्यूँ नाज़ करूँ अपनी वफ़ा-केशी पर अब तो ख़ुद दोस्त मुझे दाद-ए-वफ़ा देता है साक़ी-ए-बज़्म का ये ख़ास करम है 'साहिर' देखते ही मुझे नज़रों से पिला देता है