आदमी के दर्द का इस तरह दरमाँ कीजिए अस्ल ईमाँ मावरा-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ कीजिए मेरी ख़ाकिस्तर में बाक़ी है जो बो-ए-आशियाँ बिजलियों का ज़िक्र क्या फ़िक्र-ए-गुलिस्ताँ कीजिए गर कमाल-ए-ज़ौक़-ए-गुलशन बू-ए-गुल बनने में है ज़र्रा ज़र्रा ख़ाक का अपनी गुलिस्ताँ कीजिए गर फ़रोग़-ए-ज़िंदगी ख़ुद को मिटा देने में है ज़ौक़-ए-ख़ुद-बीनी मिटा कर फ़िक्र-ए-इंसाँ कीजिए अपने अरमानों की दुनिया में तो दुनिया रह चुकी जिस में दुनिया ही सिमट आए वो अरमाँ कीजिए अपने ग़म को रोते रहना लाएक़-ए-इंसाँ नहीं गाहे-गाहे दूसरों के ग़म का फ़रमाँ कीजिए ज़ौक़-ए-तौसीअ'-ए-मोहब्बत का है आलम मुंतज़िर दर्द-ए-आलम ही को अपना मोनिस-ए-जाँ कीजिए लुत्फ़-ए-हस्ती ख़ाक-ए-मय-ख़ाना ही बन जाने में है ख़ुद को मिस्ल-ए-ख़ाक-ए-पाक-ए-पा-ए-रिंदाँ कीजिए आलम-ए-इम्काँ में हो 'अनवर' नया आलम बपा दूसरों के वास्ते गर ख़ुद को क़ुर्बां कीजिए